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________________ अखण्ड, अनन्त सुख की अनुभूति होना ही शरीर, संसार व समस्त दुःखों से मुक्त होना है। यहाँ 'दर्शन' शब्द का अर्थ देखना नहीं है। प्रत्युत संवेदनशीलता का अनुभव करना है। संवेदनशीलता का अनुभव शान्तचित्त में ही होता है। चित्त शान्त निर्विकल्पता से होता है। निर्विकल्पता कामना के अभाव से, चाह रहित होने से ही होती है। शान्त चित्त में ही विचार या विवेक का उदय होता है। इसीलिए जैनागम में दर्शन के विकास के साथ ज्ञान के विकास की बात कही है। जितना दर्शन का विकास होता है, उतनी ही संवेदनशीलता बढ़ती है। अर्थात् चेतना का विकास होता है। दर्शन का विकास होता है, कामना(चाह की इच्छा) के अर्थात् आर्तध्यान के त्याग से, प्रकारान्तर से कहें, तो मोह की कमी से। दर्शन के विकास से चेतना का विकास होता है एवं विवेक का उदय होता है। बुद्धि का उपयोग भोग भोगने में करना ज्ञान का विकास नहीं है। ज्ञान का विकास सत्य का दर्शन करने से अर्थात् सत्य का अनुभव करने से होता है। यह नियम है कि जितना-जितना सत्य का अनुभव होता जाता है, उतनी-उतनी जड़ता, पराधीनता, चिन्ता, खिन्नता छूटती जाती है। निश्चिन्तता, निर्भयता, चेतनता, स्वाधीनता, प्रसन्नता बढ़ती जाती है। यही जीवन है। दर्शन-गुण निर्विकल्पता की उपलब्धियाँ 1. लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, मान-अपमान, अनुकूलता-प्रतिकूलता में हर्ष शोक न करना समता है। समता में निर्विकल्पता होती है। निर्विकल्पता ही दर्शन है। निर्विकल्पता से ही चिन्मयता, जागरूकता आती है, अर्थात् स्वसंवेदन से शरीर में स्थित चैतन्य के प्रदेशों की अनुभूति होती है। यही 'दर्शन' गुण या उपयोग का प्रकट होना है, दर्शनावरण का हटना है, क्षयोपशम है। 2. निर्विकल्पता है चित्त का शान्त होना। शान्त चित्त में ही विचार का, ज्ञान का उदय होता है। यह ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है। 3. राग-द्वेष न करने से निर्विकल्पता आती है। अतः राग-द्वेष या मोह के हटने या घटने से निर्विकल्पता आने से स्व-संवदेन रूप 'दर्शन' (गुण या उपयोग) तथा विचार का उदय रूप 'ज्ञान' (गुण या उपयोग) का प्रकटीकरण होता है। निर्विकल्पता कामना रहित होने से आती है। कामना रहित होने से अभाव का अभाव होता है अर्थात् ऐश्वर्य प्रकट होता है, यही लाभान्तराय का क्षयोपशम है। [10] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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