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________________ भी निर्विकल्पता पाई जाती है। दर्शन गुण ही चेतना का आधारभूत मूल गुण है। इसकी पहली विशेषता संवेदनशीलता है तथा दूसरी विशेषता निर्विकल्पता है। संवेदनशीलता एवं निर्विकल्पता का अनुभव वहाँ ही सम्भव है जहाँ समभाव का अनुभव होता है। जहाँ समभाव है वहाँ कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव न होकर द्रष्टाभाव होता है। द्रष्टाभाव के विकास के साथ ही जड-चिद् ग्रन्थि का भेदन होता है जो सम्यग्दर्शन कहा जाता है। अतः दर्शनगुण सम्यग्दर्शन के विकास में सहायक बनता है तथा सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति का प्रत्येक आचरण दर्शनगुण को पुष्ट करता है। मोह के कारण मनुष्य में जड़ता का आवेश बढ़ता है। किन्तु जब मोह कर्म घटता है तो दर्शनगुण और ज्ञानगुण दोनों का विकास होता है। अर्थात् इन गुणों पर आया आवरण हटता जाता है। जड़तारूप निर्विकल्प स्थिति महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण है निर्विकल्प अनुभूति या बोध। निर्विकल्प स्थिति तो निद्रा, जड़ता, मूर्छा, अज्ञानता, असमर्थता आदि स्थितियों में भी हो सकती है। किन्तु साधना एवं प्रज्ञाजनित निर्विकल्प अनुभूति मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। क्योंकि वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का कारण बनती है। लेखक का मन्तव्य है कि ज्ञानावरण कर्म का उपार्जन ज्ञान को आचरण में नहीं लाने से होता है। ज्ञान को आचरण में नही लाना ही ज्ञान का अनादर कहा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त ज्ञान का आदर करना चाहिए। व्यक्ति का निज ज्ञान महत्त्वपूर्ण है। सभी को स्वाधीनता, अमरत्व, प्रसन्नता आदि गुण इष्ट हैं। यह ज्ञान स्वयंसिद्ध एवं निज ज्ञान है। इस ज्ञान का जितना विकास होता जाता है उतना ही व्यक्ति दुःखमुक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ता जाता है। आगम में यह ज्ञान श्रुतज्ञान कहा गया है। इसी से हेय उपादेय का सही बोध होता है। शुद्ध ज्ञान का जितना आदररूप आचरण किया जाता है उतना ही प्राणी मोक्ष के निकट पहुँचता है। सम्यग्ज्ञान नामक अध्याय में श्रुतज्ञान का विस्तृत विवेचन किया गया है। दुःखमुक्ति की साधना में यही ज्ञान उपयोगी बनता है। जो इस ज्ञान से सम्पन्न होता है वह पाप और आस्रव का त्याग कर पुण्य, संवर और निर्जरा की साधना में आगे बढ़ता रहता है। इस साधना में आगे बढ़ना ही सम्यक्चारित्र कहा जाता है। शुभयोग पुण्य है। पुण्य के बिना आध्यात्मिक साधना की भूमिका तैयार नहीं होती। पुण्यार्जन से ही मनुष्य भव, धर्मश्रवण, सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है। यही नहीं, संवर एवं निर्जरा की साधना में भी विशुद्धि रूप पुण्य सहायक है। केवलज्ञान की अवस्था में विशुद्धिभाव चरम सीमा पर होता है। मोक्ष तत्त्व [269]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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