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________________ साधना में महत्त्व है त्याग - तप के प्रभाव से कषाय के अनुदय से प्रकट चिन्मयता एवं अनुभव रूप निर्विकल्प बोध का । यह निर्विकल्प अनुभव दो प्रकार से होता है - १. कषायों के उपशम से एवं २. कषायों से क्षय से । कषायों के उपशम से होने वाले निर्विकल्प अनुभव में सत्ता में कषायों के संस्कार रहते हैं, जो कुछ काल ( अन्तर्मुहूर्त) पश्चात् उदय में आकर निर्विकल्पता को भङ्ग कर देते हैं। इसे जैनागम में उपशान्त मोहनीय कहा है । कषाय के सर्वांश में क्षय से जो निर्विकल्प बोध (अनुभव) होता है, वह सदा के लिये हो जाता है, इसे क्षीण मोहनीय कहा है । अतः निर्विकल्प स्थिति और निर्विकल्प अनुभूति इन दोनों में बहुत अन्तर है । महत्त्व है निर्विकल्प अनुभूति का, निर्विकल्प स्थिति का नहीं । महत्त्व निर्विकल्पता का नहीं, विकल्पों के त्याग का है, निर्विकल्प बोध का है। त्यागजनित निर्विकल्पता है, अनुभूति का है। यह सर्वविदित (सबकी अनुभूति ) है कि कामना की अपूर्ति ही चित्त को अशान्त बनाती है । कोई भी कामना उत्पन्न होते ही पूरी नहीं हो जाती, उसकी पूर्ति श्रम पर, प्रयत्न पर निर्भर करती है । अत: प्रत्येक प्राणी को कामना पूर्ति पूर्व कामना अपूर्ति की स्थिति से गुजरना पड़ता है। वह स्थिति चित्त की अशान्ति व विकल्प की द्योतक है, कामना उत्पत्ति व अपूर्ति चित्त के संकल्प-विकल्प की कारण बनती है। 1 इसलिये जहाँ कामना है, वहाँ अशान्ति है । जितनी अधिक कामनाएँ, उतनी ही अधिक अशान्ति । जितनी प्रबल कामनाएँ, उतनी ही प्रबल अशान्ति । कामनाएँ किसी भी कारण से उत्पन्न हों, वे चित्त को अशान्त बनाती हैं । इसीलिए कोई व्यक्ति बहुत अधिक कामनाएँ करता है, तो उसका चित्त घोर अशान्त हो जाता है चित्त की यह स्थिति नारकीय है। इस संसार में इन्द्रिय सुख व भोग की सामग्री अगणित है। यदि कोई उन वस्तुओं को पाने की कामनाएँ करने लगे, तो मस्तिष्क इतना अधिक अशान्त हो जायेगा कि उसके मस्तिष्क की कोई भी स्नायु फटकर रक्तस्राव 'हेमरेज ' हो सकता है, जिससे लकवा, पागलपन या मृत्यु भी हो सकती है । जहाँ विकल्प है, संकल्प है, कामना है, वहाँ अशान्ति है । निर्विकल्पता में ही शान्ति है, प्रसन्नता है । T वस्तुतः महत्त्व निर्विकल्प बोध का है। उसकी उपलब्धि कामना पूर्ति के सुख में दुःख का अनुभव करने से होती है । जब सत्य के खोजी को इसका ज्ञान होता है जैतत्त्व सा [8]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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