SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनन्त वीर्य (अनन्त सामर्थ्य) वीतरागता की पाँचवीं उपलब्धि अनन्त वीर्य है। 'वीर्य' शब्द सामर्थ्य का द्योतक है। 'सामर्थ्य' असमर्थता का विरोधी है। अतः जहाँ असमर्थता है वहाँ सामर्थ्य का अभाव है। असमर्थता वहीं होती है जहाँ क्रिया या प्रवृत्ति करने की रुचि है। कारण कि करना शरीर, इन्द्रिय, मन, वस्तु, परिस्थिति आदि 'पर' पर निर्भर करता है। 'पर' पर निर्भर होना पराधीनता है। पराधीन होना ही 'असमर्थता' है। तात्पर्य यह है कि जहाँ करना है वहाँ पराधीनता है। जहाँ पराधीनता है वहाँ असमर्थता वीर्यान्तराय एवं अनन्तवीर्य सामर्थ्य की अभिव्यक्ति वीर्य है। असमर्थता का अनुभव वीर्यान्तराय है। वीर्य सामर्थ्य का द्योतक है। केवली वीतराग देव अनन्तवीर्यवान हैं-सामर्थ्यवान हैं। परन्तु उनमें किसी के विकार दूर करने, अपना व अन्य किसी का रोग या वेदना मिटाने, ज्ञान प्राप्त कराने, अपना या किसी का मरण टालने, आयु बढ़ाने, किसी के कर्म काटने का सामर्थ्य नहीं है। इसीलिए उनके लिए सर्वसमर्थ विशेषण का प्रयोग नहीं किया गया। इसका तात्पर्य यह निकला कि वे केवल आत्मिक दोषों-अवगुणों को मिटाने व गुणों को प्रकट करने में ही समर्थ हैं। अपने से भिन्न शरीर, संसार आदि के बनाने, बिगाड़ने में समर्थ नहीं हैं। प्राकृतिक विधान, विस्रसोपचित कर्म तथा कर्म-सिद्धान्त को बदलने में वे समर्थ नहीं हैं। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर वे अनन्तवीर्यवान कैसे हैं? उत्तर में कहना होगा कि प्राकृतिक विधान या कर्मोदय एवं विस्रसा से घटित अनुकूल- प्रतिकूल घटनाएँ, परिस्थितियाँ, स्थितियाँ किसी भी सत्यान्वेषी साधक का कुछ भी बिगाड़ने में समर्थ नहीं हैं। ये हानि-लाभ, बनाव-बिगाड़ में उनके लिए निमित्त बनती हैं, जो इससे भोग भोगना चाहते हैं। कारण कि भोग की पूर्ति वस्तु, परिस्थिति आदि पर निर्भर करती है। जो त्यागी हैं उनके लिये सभी परिस्थितियां समान अर्थ रखती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कुछ भी अर्थ नहीं रखती हैं। क्योंकि जो भी परिस्थिति है, उसका उन्हें भोग नहीं करना है, उन्हें उसका उपयोग रागनिवारण के लिए करना है। राग का निवारण त्याग या संयम से होता है। त्याग व संयम में परिस्थिति का महत्त्व नहीं है, विवेक का एवं संकल्प की दृढ़ता का महत्त्व है, जिसका परिस्थिति से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। [254] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy