SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकारान्तर से कहें तो जहाँ राग है वहाँ द्वेष है। जहाँ द्वेष है वहाँ वैर है, शत्रु भाव है। जहाँ वैर भाव है वहाँ मैत्री भाव नहीं हो सकता तथा जहाँ राग है, वहाँ किसी-न-किसी प्रकार के सुख-भोग की वासना रहती है, अर्थात् स्वार्थ-भाव रहता ही है। जहाँ स्वार्थ भाव है वहाँ राग भाव है, जहाँ राग भाव है वहाँ मैत्रीभाव नहीं है। अतः मैत्रीभाव वहीं होता है जहाँ राग भाव (स्वार्थभाव) तथा वैर भाव नहीं होता है, प्रत्युत सर्वहितकारी भाव होता है। अर्थात् राग-द्वेष दोनों मैत्रीभाव के बाधक व घातक हैं। अतः जितना-जितना राग-द्वेष घटता जाता है उतना-उतना मैत्रीभाव प्रकट होता जाता है। 'मित्ती मे सव्वभूएसु वेरं मझंण केणई' अर्थात् सब प्राणियों के प्रति मेरा मैत्री भाव है, किसी से भी वैरभाव नहीं है, वीतराग मार्ग के साधक के जीवन में इसी सूत्र का आचरण होता है। मैत्रीभाव में मित्र के हित की नि:स्वार्थ भावना रहती है। बदले में मित्र से कुछ भी पाने की आशा या इच्छा नहीं होती है, मित्र की प्रसन्नता से स्वयं को प्रसन्नता का अनुभव होता है। यह प्रसन्नता रागरहित होती है। अतः इस प्रसन्नता का रस या सुख राग के रस या सुख से विलक्षण होता है। रागजनित सुख भोग का सुख है, इसके साथ क्षीणता, नश्वरता, पराधीनता, आकुलता, नीरसता, जड़ता, अभाव, अतृप्ति आदि दुःख लगे ही रहते हैं, जबकि मैत्रीभाव का रस इन सब दोषों से रहित होता है। इस रस या सुख में स्वाधीनता, निराकुलता, चिन्मयता, सरसता का अनुभव होता है। यह अक्षय, अव्याबाध व अनन्त होता है। तात्पर्य यह है कि जितना राग घटता जाता है, उतना करुणा भाव, आत्मीय भाव, मैत्री भाव, वत्सल भाव बढ़ता जाता है और वीतराग हो जाने पर यह करुणा, मैत्री, वात्सल्य आदि सब भाव असीम व अनन्त हो जाते हैं, जो सर्व प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव तथा सर्वहितकारी भाव के रूप में प्रकट होते हैं। वीतराग का यही अनन्त करुणा भाव, अनन्त मैत्रीभाव, अनन्त वात्सल्य भाव, अनन्त दान' कहा गया है। वीतराग को अपने लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता है, अतः वीतराग की प्रत्येक प्रवृत्ति या निवृत्ति विश्वहित के लिए होती है। उनमें विश्व वात्सल्य भाव होता है। वे जगद्वत्सल होते हैं। यही विश्व वात्सल्यभाव, करुणा भाव अनन्त दान है। इस प्रकार वीतरागता से अनन्त दान की उपलब्धि होती है अथवा जो वीतराग हो जाता है उसे संसार में अपने स्वयं के लिए कुछ भी पाना नहीं रह जाता है। देह आदि जो कुछ भी उसे प्राप्त है, वह सब संसार के लिए है। इस [248] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy