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________________ 3. विषय-भोगों के त्यागी को दु:खी मानना साधक को असाधक मानने रूप मिथ्यात्व है। 4. विषय-विकार से ग्रस्त को सुखी मानना असाधु को साधु मानने रूप मिथ्यात्व है। 5. त्याग को अस्वाभाविक मानना धर्म को अधर्म मानने रूप मिथ्यात्व है। 6. विषय-विकार या भोग को स्वाभाविक व नैसर्गिक मानना अधर्म को धर्म मानने रूप मिथ्यात्व है। 7. राग या कामनापूर्ति में सुख मानना दुःख में सुख मानने रूप मिथ्यात्व है। 8. राग के त्याग में दुःख मानना सुख में दुःख मानने रूप मिथ्यात्व है। 9. भूमि, भवन, धन-सम्पत्ति आदि पर-पदार्थों के आश्रय (पराधीनता) या प्राप्ति से अपने को स्वाधीन मानना अमुक्त को मुक्त मानने रूप मिथ्यात्व है। 10. देहातीत, लोकातीत पूर्ण स्वाधीन अवस्था को सुखहीन व दु:ख रूप अवस्था मानना मुक्त को अमुक्त मानने रूप मिथ्यात्व है। इन सब मिथ्या मान्यताओं के आत्यन्तिक क्षय या नाश से अर्थात् क्षायिक सम्यग्दर्शन से ही वीतरागता की ओर चरण बढ़ते हैं। अत: वीतरागता के साथ क्षायिक सम्यक्त्व की उपलब्धि पहले से ही विद्यमान रहती है। जब तक इन मिथ्या मान्यताओं का उदय रहता है, वीतरागता की ओर एक कदम भी बढ़ना सम्भव नहीं है। अनन्त दर्शन राग के साथ संकल्प-विकल्प जुड़े हुए हैं। संकल्प-विकल्प के साथ जड़ता जुड़ी हुई है। 'जड़ता', "चिन्मय' गुण की विघातक व आवक है। अतः जड़ता का होना ही दर्शन गुण पर आवरण आना है। जैसे-जैसे विकल्प कम होते हैं, वैसे-वैसे दर्शन पर आए आवरण में कमी होती जाती है तथा चिन्मयता-चेतनता गुण प्रकट होता जाता है। राग का सर्वथा अभाव हो जाने पर, वीतरागता आने पर पूर्ण निर्विकल्पता आ जाती है। जिससे दर्शन पर आया आवरण पूर्ण रूप से हट जाता है और केवल' दर्शन प्रकट हो जाता है। वीतराग हो जाने पर राग का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है, फिर कभी भी लेशमात्र भी राग की उत्पत्ति नहीं होती, जिससे जड़ता सदा के लिए मिट जाती है। अतः इस चिन्मयता गुण में फिर न कभी कमी आती है और न इस गुण का फिर कभी अन्त ही होता है। यह सदैव परिपूर्ण एवं अविनाशी रूप में प्रकट रहता है। यही अनन्त दर्शन की उपलब्धि है। 'दर्शन' है स्व-संवेदन। संवेदन उसी का होता है जिसके साथ अभिन्नता होती है। अतः स्व-संवेदन स्व से अभिन्न होने से, स्वानुभव से होता है। जब तक व्यक्ति [242] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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