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________________ दुःखता, वचन दुःखता एवं काया की दुःखता के रूप में होता है । इस आधार पर वेदनीय कर्म दो प्रकार का है- साता वेदनीय एवं असाता वेदनीय । साता - वेदनीय कर्म का उपार्जन सभी प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से होता है । उन्हें दुःख न देने से, उनके पीड़ा - परिताप का निवारण करने से होता है । इसके विपरीत असातावेदनीय कर्म का उपार्जन अन्य प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्वों पर क्रूरता आदि के व्यवहार से यावत् परिताप उत्पन्न करने से होता है। इसका तात्पर्य है कि हमारा व्यवहार दूसरे प्राणियों के साथ कैसा है, इस पर साता एवं असाता का उपार्जन निर्भर करता है । तत्त्वार्थसूत्र में भी दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन (विलाप) को असातावेदनीय के बंध का कारण तथा भूतानुकम्पा, व्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षमा और शौच को सातावेदनीय के बंध का कारण स्वीकार किया गया है। क्रोध, मान, माया एवं लोभ कषाय के शमन से भी साता का अनुभव होता है। क्रोध-विजय से क्षमा, क्षमा से प्रह्लादभाव, प्रह्लादभाव से सब प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व के प्रति मैत्रीभाव उत्पन्न होता है । सब प्राणियों के प्रति मैत्री को अनुकम्पा भी कहा गया है। अनुकम्पा भाव साता का प्रमुख कारण है । पुस्तक के लेखक ने दुःख का मूल सुख - दुःख को भोग को माना है । उनके अनुसार सुख के प्रति राग करना एवं दुःख के प्रति द्वेष करना सुख-दुःख का भोग है। अपने सुख का भोग न करके उसे पर पीड़ा से करुणित होकर सेवा में लगाना राग की निवृत्ति में सहायक है तथा दुःख से मुक्ति पाने के लिए सुख-दुःख के भोग का त्याग अनिवार्य है। वेदनीय कर्म अघाती है इसलिए वह हानिकारक नहीं है। हानिकारक है साता की वेदना के प्रति राग एवं असाता की वेदना के प्रति द्वेष करना । रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति नये कर्मों को जन्म देती । विद्वान् लेखक श्री लोढ़ा सा. से विभिन्न तर्क प्रस्तुत कर यह सिद्ध करने को प्रयास किया है कि बाह्य विषयों की प्राप्ति साता या असाता वेदनीय कर्म के उदय से नहीं होती, हाँ उन विषयों के उदय से होता है । जीव में पहले किस प्रकार के कर्म - संस्कार हैं उसके अनुसार ही उसे उन विषयों के मिलने पर सुख - दुःख का वेदन होता है। लोढ़ा सा. ने उदाहरण देते हुए कहा कि कोई संगीतज्ञ के संगीत - गायन को किसी एक के कर्म के उदय का फल माना जाए तो उससे दो प्रकार के फलों की प्राप्ति नहीं हो सकती । [220] जैतत्त्व सा
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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