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________________ वस्तुतः चन्द्र पर चन्द्रकला कम-ज्यादा नहीं होती है। चन्द्रमा तो सदा पूर्ण रूप में एक सी ही प्रभा वाला रहता है, उस प्रभा का प्रकटीकरण बाहर के कारण कमज्यादा होता है। इसी प्रकार चेतन का दर्शन गुण 'चेतनता' कभी न्यूनाधिक नहीं होती है। उस पर मोह के कारण आवरण आजाने से उस चेतनता का प्रकटीकरण कम-ज्यादा होता रहता है। शरीर, संसार आदि जड़ पदार्थों के प्रति आसक्ति से, राग से मोह होता है। जड़ के प्रति राग या मोह होने से जड़ से सम्बन्ध जुड़ता है, जड़ से जुड़ने से जड़ता आती है। जड़ता आने से चेतनता गुण आवरित होता है। मूर्छा जड़ता की एवं मोह का द्योतक है और अतः जितना मोह बढ़ता है, उतनी ही मूर्छा की वृद्धि होती है। जितनी मूर्छा बढती है, उतनी ही जड़ता बढ़ती है, जितनी जड़ता बढ़ती है उतना ही चेतन का चेतनता रूप दर्शन गुण आवरित होता है। अर्थात् मोहनीय कर्म में जितनी वृद्धि होती है उतना ही दर्शन गुण पर आवरण बढ़ता जाता है। दर्शनावरणीय कर्म का कारण मोहनीय कर्म है। चारित्र मोहनीय के कारण भोग-भोगने की प्रवृत्ति होती है। भोग-भोगने में सुख की अनुभूति होना अर्थात् भोग में सुख मानना दर्शनमोहनीय है। कारण कि यह विषय-सुख की अनुभूति वास्तव में सुख नहीं है। सुख की प्रतीति या आभास मात्र है। मोह के कारण यह सुखाभास सत्य, स्थायी व प्रिय लगता है, परन्तु वास्तव में यह है असत्य, क्षणिक एवं रसहीन। यही कारण है कि विषय सुख प्रतिक्षण क्षीण होता हुआ नीरसता में बदल जाता है। परन्तु मोही व्यक्ति द्वारा इस सत्यानुभूति का अनादर दर्शनावरणीय कर्म का कारण है। इसमें विषय-भोग सुखद है, यह मिथ्या मान्यता रूप मिथ्यात्व या 'दर्शन मोहनीय' ही प्रमुख कारण है। इस प्रकार दर्शनावरणीय के बंध का प्रमुख कारण मोहनीय कर्म है। अतः जैसे-जैसे मोहनीय कर्म क्षीण होता जाता है, दर्शनावरणीय कर्म भी क्षीण होता जाता है, चेतना गुण बढ़ता जाता है। दर्शन गुण है स्व-संवदेन-चैतन्य (चेतनता) का अव्यक्त बोध व अनुभव होना। जितना इस चैतन्य गुण पर आवरण आता जाता है उतना ही दर्शनावरणीय कर्म प्रगाढ़ होता जाता है अर्थात् जड़ता बढ़ती जाती है (ध्यान की गहराई में इस तथ्य का प्रत्यक्षीकरण व साक्षात्कार स्पष्ट होता है।) निद्रा के समय स्वरूप विस्मृति हो जाती है। अतः निद्राओं को दर्शनावरणीय कर्म की सर्वघातिनी प्रकृतियों में गिनाया है। निद्राओं से जड़ता आती है। यह जड़ता दर्शनावरणीय कर्म की द्योतक है। अनिद्रित अवस्था को स्वरूप बोध, जागरूकता, यतना, अप्रमाद कहा गया है। [2] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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