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________________ __आशय यह है कि पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि सभी प्राणियों के शरीर में उसको यथोचित रूप में संतुलित रखने वाले हार्मोन होते हैं, जो शरीर में सदा कार्यरत रहते हैं। इसीलिए इन्हें अगुरुलघु प्रकृति कहा जा सकता है। शरीर से अर्थात् पुद्गल से संबंधित होने से यह प्रक्रिया पुद्गल विपाकी प्रकृति कही गयी है। निर्माण नाम कर्म नाम कर्म की 93 प्रकृतियों में निर्माण एक प्रकृति है। यह पुद्गल विपाकी है। कारण कि इसका सम्बन्ध पुद्गलों द्वारा शरीर का निर्माण करना होता है। 'निर्माण' शब्द का अर्थ है बनाना या रचना करना। शरीर में सर्जन की जो प्रक्रिया चलती है वही निर्माण नामकर्म है। जब शरीर पर कहीं अस्त्र-शस्त्र की चोट लग जाती है और घाव हो जाता है तो उस घाव को भरने के लिए, दूसरे शब्दों में उस विक्षत अंग का पुनः निर्माण करने के लिए शरीर में एक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। उसी प्रक्रिया के फलस्वरूप घाव के तल में मांस का व घाव के चारों ओर चमड़ी का निर्माण होने लगता है और धीरे-धीरे घाव पूरा भर जाता है। शरीर की यही प्रक्रिया निर्माण नामकर्म कही जाती है। शरीर में जब कहीं हड्डी टूट जाती है तो उसे पुनः जोड़ने, निर्माण करने का कार्य शरीर की यही निर्माण प्रकृति करती है। चिकित्सक उसे जोड़ नहीं सकता है। चिकित्सक तो केवल हड्डी के टूटे हुए टुकड़ों को सही स्थिति में लाकर चूने का पट्ट बांध देता है। उस चूने के पट्टे में कोई दवा नहीं होती है और न कोई दवा ही लगाई जाती है। शरीर को यह निर्माणकारी प्रकृति ही उसे पुनः सीधा कर एक बनाती है। शरीर की निर्बलता को दूर कर सबल बनाना भी इसी प्रकृति का कार्य है। जिस व्यक्ति की यह निर्माण प्रकृति जितनी सबल होती है उस व्यक्ति का घाव उतना ही शीघ्र भरता है एवं हड्डी शीघ्र जुड़ती है और जिस जीव की निर्माण कर्म प्रकृति निर्बल होती है उसके घाव भरने व हड्डी जुड़ने में उतना ही अधिक समय लगता है। वृद्धावस्था में घाव भरने व हड्डी जुड़ने, शरीर में शक्ति आने में अधिक समय लगने का कारण भी निर्माण नाम की प्रकृति का निर्बल हो जाना है। शरीर-क्रिया विज्ञान में शरीर की मरम्मत व निर्माण करने वाले पदार्थों की उत्पत्ति को उपचय सृजनात्मक क्रिया कहते हैं। विज्ञान जगत् में जीवधारी का पहला मुख्य लक्षण उपचयापचय है। जीव के शरीर में सजीव कोशिकाओं में अनवरत होने वाली जैव रासायनिक क्रियाओं को सामूहिक रूप से उपचयापचय कहते हैं। ये बंध तत्त्व [187]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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