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________________ 9 नोकषाय- (17) हास्य (18) रति (19) अरति (20) भय (21) शोक (22) जुगुप्सा (23) स्त्रीवेद (24) पुरुषवेद (25) नपुसंकवेद। विशेष जानकारी के लिए लेखक की पूर्व प्रकाशित पुस्तक 'बन्ध तत्त्व' के मोहनीय कर्म अध्याय में निम्नांकित प्रकरण पठनीय है- कषाय का स्वरूप एवं उसके भेद-प्रभेद; नो कषाय; हास्य-रति-अरति-शोक; भय-जुगुप्सा; पुरुषवेदस्त्रीवेद-नपुंसकवेद; मोहनीय कर्म के बंध के कारण; मोह विजय क्यों आवश्यक? आयु कर्म जिस कर्म के उदय से जीव जीवित रहता है, एक भव में अवस्थित रहता है, चाहकर भी उससे निकल नहीं पाता, उसे आयु कर्म कहते हैं। यह नियम है कि प्राणी की प्रवृत्ति जब प्रगाढ़ हो जाती है तो वह प्रकृति (आदत) का रूप धारण कर लेती है। फिर वह जीवन बन जाती है अर्थात् उस प्रकृति के अनुरूप ही वह आगे का जीवन या भव धारण करता है। यह भव धारणा जिससे होती है, वह आयु कर्म है। भव की स्थिति ही आयु कर्म की स्थिति है। संक्षेप में शरीर की जीवनी-शक्ति को आयु कर्म कहा जा सकता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि आयु कर्म का बंध सदैव नहीं होता है तथा आयु कर्म का बंध प्राणी की मध्यमान प्रकृति (औसत आदत) के अनुसार होता है। भावावेश आदि में आकर की गई प्रवृत्ति की तीव्रता या मन्दता में जो केवल कुछ काल टिकने वाली है, उसमें आयु कर्म का बंध नहीं होता है। आयुकर्म चार प्रकार का है- 1. नरकायु 2. तिर्यंचायु 3. मनुष्यायु और 4. देवायु । इन चारों आयुओं के बंध के हेतुओं का ज्ञान जीवन के लिए अत्युपयोगी है। अतः यहाँ पर प्रत्येक आयु कर्म के बंध के हेतुओं पर विशेष प्रकाश डाला जा रहा है। विशेष जानकारी के लिए लेखक की पूर्व प्रकाशित पुस्तक 'बन्ध तत्त्व' के आयु कर्म अध्याय में निम्नांकित प्रकरण पठनीय है- नरकायु; तिर्यंचायु; मनुष्यायु; देवायु; गति और आयु। आयु कर्म का स्थिति बंध विशुद्धि भाव से। नाम कर्म नाम कर्म शरीर से संबंधित नाना रूपों का सूचक है। इसीलिए नाम कर्म को चितेरे की एवं नाम कर्म के भेदों को नाना प्रकार के चित्रों की उपमा दी गई है। यथा- नामकम्मं चित्तिसमं।-कर्मग्रन्थ भाग-1, गाथा 22 बंध तत्त्व [183]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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