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________________ भूल है जो महाविनाश का कारण है। अतः प्रमाद व भूल छोड़ कर वर्तमान को निर्दोष बनाने में ही मानव का मंगल है, कल्याण है। कर्मसिद्धान्त एवं मनोविज्ञान जैन दर्शन में जिसे कर्मबंध होना कहते हैं उसे मनोविज्ञान में मानसिक ग्रन्थि का निर्माण होना कहते हैं। इस कर्मबंध या मनोग्रंथि का निर्माण होता है भोग प्रवृत्ति से, सुख भोगने की इच्छा या संकल्प से। भोग की रुचि को जैन दर्शन में रति कहा है। भोग के प्रति रति या रुचि तो रहे परन्तु किसी भय से या अन्य सुख के प्रलोभन से उसे न भोगें अर्थात् उस ग्रंथि का दमन करें तो वह नष्ट नहीं होती है, प्रत्युत प्राकृतिक नियमानुसार वह दमितग्रंथि विशेष विकृत होकर विक्षिप्तता आदि किसी अन्य मार्ग से प्रकट (उदय)होती है। इसे जैन कर्म सिद्धान्त में स्व जातीय, पर प्रकृति रूप संक्रमण का एक प्रकार कहा है। अर्थात् वह अन्य मानसिक रोग के रूप में प्रकट होती है। अतः मनोविज्ञान में इच्छा का दमन करते हुए उसे भोगने पर बल दिया गया है। परन्तु इस प्रकार भोग रूप में प्रकट हुई इच्छा में सुख का अनुभव होता है जो रुचिकर लगता है जिससे उसका संस्कार अंतस्तल पर अंकित हो जाता है। अर्थात् नवीन ग्रंथि बंध का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार इच्छाओं की उत्पत्ति-पूर्ति का, मानिसक ग्रन्थियों के उदय व निर्माण का प्रवाह या संतति सतत चलती रहती है, उसका अन्त नहीं होता है। भोग की इच्छा की पूर्ति करने रूप उपाय को पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि प्राणिमात्र जाने-अनजाने काम में ले रहे हैं परन्तु ऐसा करके आज तक किसी ने भी मानसिक ग्रन्थियों से छुटकारा नहीं पाया है। वस्तु स्थिति यह है कि वर्तमान मनोविज्ञान कर्म बंध व उदय की प्रक्रिया के स्थूलतम प्राकृतिक रूप को ही पकड़ पाया है। यह मानसिक ग्रन्थियों- जो भोगेच्छा के रूप में प्रकट या उदय होती हैं- उनके भोगने का समर्थन करता है। इसका मानना है कि इसके दमन से कुंठाओं एवं जटिल मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण होता है। जिनका परिणाम विक्षिप्तता आदि भयंकर रोगों के रूप में प्रकट होता है। इन रोगों से बचने के उपाय को मनोविज्ञान में उदात्तीकरण (नइसपउंजपवद) की प्रक्रिया कहते हैं। इसमें सेवा आदि लोकोपकारी कार्य करने को स्थान दिया गया है जो जैन दर्शन में वर्णित संक्रमण की प्रक्रिया का अत्यल्प अंश मात्र है। इच्छाओं को भोगने से मिले सुख से नवीन इच्छाओं का, मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण होता रहता है। फिर उन ग्रन्थियों का भोगने के रूप में उदय होता है। इस प्रकार मानसिक ग्रन्थियों बंध तत्त्व [173]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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