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________________ कषाय-वृत्ति सबकी समान रूप से क्षीण नहीं होती। अतः आयु कर्म की स्थिति भी दो व्यक्तियों की समान बंधने की संभावना नहीं है तथा आयु कर्म अगले एक भव के सिवाय आगे के भवों का नहीं बंधता है। अतः अनेक भव के पश्चात् किसी समुदाय के जीवों का एक साथ आयुकर्म उदय में आवे और उस कर्म के कारण आयु समाप्त होने से एक साथ दुर्घटना में मरे यह भी कर्म सिद्धान्त के अनुसार फलित नहीं होता है तथा उचित प्रतीत नहीं होता है। यदि किसी दुर्घटना में बहुत से जीवों के समुदाय की एक साथ मृत्यु होना सामुदायिक कर्म बंध व उसके उदय का परिणाम माना जाय तो बाधा उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ जब कोई व्यक्ति जमीकंद खाता है तो उसमें सुई के अग्रभाग जितने से भाग में स्थित अनन्तानंत जीवों के एक साथ आकस्मिक दुर्घटना घटती है, जिसमें अनन्तानंत जीवों की मृत्यु हो एक साथ जाती है। उन अनन्तानंत जीवों की मृत्यु का कारण सामुदायिक कर्म बंध माना जाय तो प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसा सामुदायिक कर्म बंध अनन्तानंत जीवों ने कहाँ बांधा? कारण कि संपूर्ण पृथ्वीकाय के जीव, समस्त सागरों के जल के जीव, समस्त अग्निकाय, तेउकाय, वायुकाय के जीव, समस्त बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव मिलकर भी सामुदायिक कर्म बांधे तो उनकी संख्या असंख्यात ही रहेगी, अनन्त नहीं होगी। अतः उन अनन्त जीवों की दुर्घटना व मृत्यु का कारण सामुदायिक कर्म बंध नहीं हो सकता। अतः सामूहिक व सामुदायिक मृत्यु का कारण सामुदायिक मानना कर्म-सिद्धान्त सम्मत नहीं है। भूकम्प, बाढ़, तूफान, दावानल व किसी भी आकस्मिक दुर्घटना में हजारों पंचेन्द्रिय जीवों की और असंख्यात एकेन्द्रिय जीवों की एक साथ मृत्यु होती है। उन जीवों के आयु कर्म का एक साथ क्षय होता है। मृत्यु के कारण में अन्य किसी कर्म प्रकृति का सम्बन्ध नहीं जुड़ता है। यह नियम है कि नाटक आदि घटनाओं में सभी जीव आयु कर्म न तो 1. एक साथ बांधते हैं 2. न एक समान बांधते हैं और 3. न अनेक भव का बांधते हैं। अतः सामुदायिक क्रिया से आयु कर्म का बंध सभी जीवों का एक साथ-एक समान होना संभव ही नहीं है और न एक साथ उदय आकर क्षय होना ही संभव है। एक भव से अधिक आयुओं का बंध न होने से अगले भव में ही सब जीवों को एक साथ सामुदायिक कर्म भोगना पड़े यह भी संभव नहीं है। 4. भूकम्प, बाढ़, दावानल आदि घटनाओं में मनुष्य या पंचेन्द्रिय प्राणी ही नहीं चतुरिन्द्रिय, तेइन्द्रिय, बेइन्द्रिय, एकेन्द्रिय असंख्य जीव एक साथ मरते हैं तो क्या उनके सबका बंध तत्त्व [ 157]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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