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________________ सम्बन्ध स्थापित हो जाय, उन प्रवृत्तियों को योग कहा है। कारण कि इससे प्राणी उस प्रवृत्ति या प्रकृति से जुड़ जाता है। योग से आत्म-प्रदेशों पर पड़ा प्रभाव, चित्र या अंकित संस्कार जिस प्रकार का है, उसे प्रकृति बंध कहते हैं। प्रवृत्तियों की प्रबलता से, सघनता से उस प्रभाव का चित्र जितना स्पष्ट अंकित होता है एवं प्रभाव जितना पुष्ट होता है, उसे प्रदेश बंध कहा जाता है। इसलिए प्रकृति और प्रदेश के बंध का कारण योग या प्रवृत्ति को बताया गया है। इन तीनों प्रवृत्तियों में जैसी तीव्र मंद रसानुभूति होती है वैसा ही तीव्र-मंद रसबंध या अनुभाग बंध होता है और उस रसानुभूति की प्रगाढ़ता जितनी अधिक होती है, उतने ही अधिक काल तक वह टिकने वाला होता है। इस काल मर्यादा को स्थिति बंध कहा है। रसानुभूति को जैन दर्शन में अनुभाग कहा है तथा जैन दर्शन में कषाय को ही स्थिति व अनुभाग बंध का कारण कहा है। इस प्रकार कर्म बंध के 1. प्रकृति बंध 2. स्थिति बंध 3. अनुभाग बंध और 4. प्रदेश बंध, ये चार प्रकार हैं। बंध-सत्ता-उदीरणा-उदय कर्म-बंध के ये चारों प्रकार भविष्य में फल देने से सम्बन्ध रखते हैं। किसी क्रिया या कार्य का प्रभाव आत्मा में अंकित होना कर्म-बंध है। अंत:करण पर पड़े प्रभाव का प्रकाशन भविष्य में ही सम्भव है। प्रभाव का यह प्रकाशन ही कर्म का परिणाम है। कर्म के इस परिणाम को, कर्म-विपाक या कर्मोदय कहा गया है। यह प्रभाव का प्रकाशन अथवा उदय तदनुकूल विभिन्न कारण मिलने पर ही प्रकट होता है। जब तक प्रकट नहीं होता, तब तक वह संस्कार अंत:करण में, अचेतन मन में, कारण शरीर में, कार्मण शरीर में अंकित रहता है, उसमें स्फुरणा नहीं होती। फिर भी संस्कार का सत्त्व विद्यमान रहता है। इसे कर्म की सत्ता कहा जाता है। निमित्त आदि किसी कारण से उस संस्कार में प्रकट या उदय होने के लिए स्फुरणा होना उदीरणा कहा जाता है और उस स्फुरणा का प्रवृत्ति रूप में प्रकट होना उदय कहा जाता है। कर्म प्रकृतियाँ ___ कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं- 1. ज्ञानावरणीय 2. दर्शनावरणीय 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयु 6. नाम 7. गोत्र 8. अन्तराय। (1) ज्ञानावरणीय : जो ज्ञान का, विवेक का आवरण करे, वह ज्ञानावरणीय है। आवरण उसी पर होता है, जो वस्तु मौजूद है। शरीर आदि जो वस्तुएँ उत्पन्न हुई हैं उनका व्यय या विनाश अवश्यम्भावी है। इसी प्रकार इन्द्रिय सुख, विषय सुख [ 154] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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