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________________ श्रुतज्ञान के अनुरूप आचरण करना सम्यक्चारित्र है। सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र, इन तीनों की एकरूपता-एकत्व मोक्षमार्ग है - साधना है। प्रकारान्तर से कहें तो सत्-असत का विवेक सम्यक्ज्ञान है, सत् पर श्रद्धा करके, उसे ही साध्य मानना, असत् को त्यागना सम्यग्दर्शन है। सत् के अनुरूप आचरण करना - सदाचार ही सम्यक् चारित्र है। तात्पर्य यह है कि साधक को चाहिए कि वह स्वयं-सिद्ध, स्वतः प्राप्त निजज्ञान (श्रुतज्ञान) से सिद्धत्व के गुणों को प्राप्त करने का लक्ष्य बनाकर, श्रुतज्ञान का पूर्ण रूप से आदर, आचरण कर दुर्लभ मानव-भव को सफल व सार्थक बनाने का पूर्ण पराक्रम करे। अथवा यों कहें कि श्रुतज्ञान का आदरकर असत् (अनित्य) के सुख व संबंध का सर्वांश में त्याग कर देने से सत् (अमरत्व-ध्रुवत्व) से अभिन्नता रूप मोक्ष की अनुभूति स्वतः हो जाती है। श्रुतज्ञान के अनुरूप आचरण करना अर्थात् अज्ञान मोहरहित हो राग-द्वेष का क्षय करना ही चारित्र है। चारित्र की पूर्णता में ही मुक्ति है। श्रुतज्ञान के अनुरूप आचरण करना ही श्रुतज्ञान का आदर है। श्रुतज्ञान के आदर से श्रुतज्ञान का क्षयोपशम तथा क्षय होता है जिससे श्रुतज्ञान का आवरण ढ श्रुतज्ञानावरणीय कर्म क्षीण होता जाता है और श्रुतज्ञान का प्रभाव जीवन में प्रकट होता जाता है। श्रुतज्ञान का पूर्ण प्रभाव होते ही या श्रुतज्ञानावरण का पूर्ण क्षय होते ही पांचों ज्ञानों के आवरण का एवं दर्शनावरण कर्म का पूर्ण क्षय हो जाता है और केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट हो जाते हैं। श्रुतज्ञान का पूर्ण आचरण ही चारित्र की पूर्णता है - उत्कृष्ट यथाख्यात, पूर्ण-निर्दोष शुद्ध चारित्र है। इसके पश्चात् साधक जन्म-मरण से अतीत हो जाता है। जन्म-मरण से अतीत होना ही मुक्त होना है। अतः श्रुतज्ञान के आचरण की पूर्णता में यथाख्यात चारित्र, केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उपलब्धि तथा आत्मस्वरूप का पूर्ण प्रकटीकरण है। इसका फल ही मुक्ति की अनुभूति करना एवं परमसुख प्राप्त करना है- मुक्त होना है। सम्यग्दर्शन युक्त सम्यकज्ञान का आचरण ही चारित्र है। चारित्र में संवर. निर्जरा और पुण्य तत्त्व समाहित हैं। संवर, निर्जरा और पुण्य साधना के इन तीन अंगों में से संवर और निर्जरा रूप धर्म का फल तत्काल मिलता है क्योंकि ये क्रियाएँ कोई 'कर्म' नहीं है जिसका फल पीछे उदय आकर मिले। कर्म का फल उदय आकर ही पीछे मिलता है, धर्म का फल तो तत्काल ही मिलता है कारण कि ऐसा कोई हेतु नहीं है जिससे धर्म का फल पीछे मिले। संवर और निर्जरा आत्मा को विकारों को दूर करने कि क्रिया है। [XVI] जैनतत्त्वसार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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