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________________ दुःखद संवेदनाओं का अनुभव करते हुए राग-द्वेष न करके केवल उनको देखते रहने से समभाव प्रगाढ़ होता है, संयम स्वयं उद्भूत होता है और मन, वचन व काया की प्रवृत्तियों का संवर होता है। दर्शनावरणीय कर्म का क्षय ___दर्शन है चित्त के निर्विकल्प होने पर चैतन्य (चिन्मयता) का, संवेदनशीलता का अनुभव होना। निर्विकल्पता चित्त के शान्त, स्थिर व सम होने पर होती है। ध्यान में चित्त की शान्ति, समता, स्थिरता, सूक्ष्मता जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही संवेदनाओं के अनुभव की शक्ति बढ़ती जाती है। अर्थात् दर्शन का आवरण क्षीण होता जाता है और दर्शन या अनुभव स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर व सूक्ष्मतम रूप में विकसित होता जाता है। हमारे शरीर में व त्वचा पर प्रत्येक स्थान व प्रत्येक अणु पर निरन्तर किसी न किसी प्रकार की क्रियाएँ चालू रहती हैं। परन्तु हमारे दर्शन (अनुभव) की शक्ति विकसित न होने से, दर्शन पर आवरण आने से उन क्रियाओं से जनित संवेदनाओं का हम दर्शन (साक्षात्कार) नहीं कर पाते हैं। ध्यान साधक का चित्त आनापान सति से निर्विकल्प होता है तब उसे पहले शरीर के बाहरी स्तर पर होने वाली संवेदनाओं का दर्शन होने लगता है। फिर जैसे-जैसे संयम या संवर या समताभाव बढ़ता जाता है; वैसे-वैसे दर्शनावरण हटता जाता है जिससे शरीर में माँस, रक्त, हड्डियों में उत्पन्न होने वाली क्रियाओं, तरंगों का संवेदन या अनुभव होने लगता है। यहाँ तक कि शरीर में होने वाली रासायनिक परिवर्तन की सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं, विद्युत-चुम्बकीय लहरों का भी दर्शन होने लगता है। इस प्रकार दर्शन की शक्ति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर स्तर पर प्रकट होने लगती है। फिर ध्यान-साधक का जैसे-जैसे समता, संयम, संवर का स्तर ऊँचा होता जाता है, बढ़ता जाता है; वैसेवैसे दर्शनावरणीय कर्म की निर्जरा होती जाती है, जिससे दर्शन की शक्ति प्रकट होकर व्यक्त चित्त में उठने वाली लहरें, उससे बँधने वाले कर्म, अवचेतन मन में उठने वाली लहरें तथा उससे भी सूक्ष्म स्तर पर स्थित अपने पूर्व जीवन में संचित संस्कारों, कर्मों व ग्रन्थियों का दर्शन होने लगता है, इस प्रकार संवर व निर्जरा जब अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं तो दर्शन के समस्त आवरण व पर्दे हट जाते हैं, क्षय हो जाते हैं, जिससे उसका दर्शन पूर्ण विशुद्ध 'केवल दर्शन' हो जाता है। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय ज्ञान अनेक प्रकार का होता है यथा इन्द्रियों के माध्यम से होने वाला शब्द, वर्ण, गंध, रस व स्पर्श का ज्ञान, चिन्तन व बुद्धिजन्य ज्ञान आदि। परन्तु इन ज्ञानों से निर्जरा तत्त्व [127]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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