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________________ उठा करती हैं। ये तरंगे चित्त को चंचल, अशान्त और उद्विग्न करती हैं । चित्त की चंचलता, अशान्तता, उद्विग्नता आदि वृत्तियाँ मानव को दुःख देती हैं। मानव इन दुःखों को कामनापूर्ति के सुख की आशा से सहन करता है तथा कामनापूर्ति के सुख से इन्हें दबाता है, परन्तु इनके मूल कारण को खोजकर दूर करने का प्रयत्न नहीं करता । परिणामस्वरूप अनन्त काल से अनंत प्राणी अनंत जन्मों में अनंत कामनाओं की पूर्ति अनंत-अनंत बार कर चुके हैं, फिर भी कामना अपूर्ति का दुःख ज्यों का त्यों विद्यमान है। अतः मानसिक दुःखों का अन्त उनके कारणों को खोजकर, तप से उनका अन्त करने से ही संभव है। मानसिक दुःखों के कारणों की खोज से ज्ञात होता है कि इन दुःखों का आश्रय स्थान है चित्त । चित्त- उत्पत्ति का कारण है कर्म । कर्म का कारण हैकामनाएँ। कामना-उत्पत्ति का कारण है कामनापूर्ति जनित सुख लोलुपता । अतः मानसिक दुःखों का मूल कारण है कामना पूर्ति जनित सुख लोलुपता, अर्थात् कामना पूर्ति जनित सुखों की रति । कामना पूर्ति जनित सुख लोलुपता रूप रति से रागादि विकार, विकार से कर्म, कर्म के उदय से प्राणी के चित्त में अशान्ति, चिन्ता, द्वन्द्व, खिन्नता, तनाव आदि दुःखों की उत्पत्ति होती है। विनय, वैयावृत्य आदि आभ्यन्तर तप चित्त में स्थित चंचलता, अशान्ति, अन्तर्द्वन्द्व, तनाव आदि दुःखों को सजीव बनाते हैं अर्थात् इनको नष्ट करने के लिए विवेक के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं। विवेक इन दुःखों के कारण स्वरूप चित्त का तादात्म्य, कर्म, अहन्ता, ममता, मोह आदि दोषों व दोष जनित सुख लोलुपता आदि को बनाये रखने का विरोध करता है तथा सुख कामना पूर्ति में नहीं, निष्काम होने में है, इस तथ्य का साक्षात्कार कराता है। इससे साधक में सुःखों के प्रति विरति उत्पन्न होती है । विरति से सजगता आती है। सजगता कामना या कषाय की विद्यमानता को असह्य कर देती है, जिससे सुख लोलुपता रूप रस सूखने लगता है। रस सूखने से कषाय निर्जीव होकर क्षय होने लगता है । कषाय के क्षय होने से कर्म निर्जरित हो जाते हैं । " प्रायश्चित्त से दोषों की निवृत्ति का, विनय से अहंता का, वैयावृत्त्य से ममता का, स्वाध्याय से पराधीनता का ध्यान से चित्त की चंचलता का, व्युत्सर्ग से संसर्गता का नाश होकर निर्दोषता, निरहंकारता, निर्ममता, स्वाधीनता, निर्विकल्पता,, असंगता आदि की उपलब्धि होती है, जिससे कर्म क्षीण होकर निर्जरित होते हैं । [124] जैतत्त्व सा
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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