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________________ योग के न रहने पर संवर - निर्जरा का अन्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि शुभ योग साधना का अनिवार्य अंग है और केवली में भी प्रवचन, विहार आदि में शुभ योग की प्रवृत्ति विद्यमान रहती है । चित्त शुद्धि के लिए भी शुभ प्रवृत्तियों का बड़ा महत्व है । चित्त की अशुभवृत्तियों का नाश व अशुभ कार्यों का त्याग स्वतः नहीं होता है। इसके लिए चित्त की अशुभवृत्तियों को शुभवृत्तियों में रूपान्तरित करना होता है। शुभ वृत्तियों का प्रगटीकरण शुभप्रवृत्तियों में होना आवश्यक है। शुभप्रवृत्तियों में ही जीवन का सर्वांगीण विकास निहित है। जिस प्रकार रबर का गुब्बारा हवा भरने से जैसे - जैसे फूलता जाता है अर्थात् बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे उसका पतलापन बढ़ता जाता है और चरम सीमा पर पहुँचने पर वह फट जाता है। यही उदाहरण शुभभाव पर भी चरितार्थ होता है । जैसे-जैसे शुभ भावों की वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे ही उनमें कषाय का पतलापन बढ़ता जाता है और जब शुभ भाव या शुभ प्रवृत्ति अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तो वह कषाय रहित हो जाती है जिससे शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है । जिस प्रकार अशोधित विष, शरीर में विकार उत्पन्न करता है, स्वस्थता का घात करता है, परन्तु उसी विष को शोधित कर दवा के रूप में लेने पर शरीर का विकार दूर करता है, स्वस्थता प्रदान करता है । इसी प्रकार अशुभ कामनाएँ आत्मा में विकार उत्पन्न करती हैं और अहित करती हैं, परन्तु उनका शोधन कर उन्हें शुभ में परिवर्तित कर दिया जाता है तो वे हितकारी प्रवृत्ति का रूप ले लेती हैं जिससे आत्मा के विकार दूर होकर स्वस्थता (स्व-स्थ - अवस्था) की प्राप्ति होती है । तात्पर्य यह है कि शुभ योगों की प्रवृत्तियाँ मुक्ति प्राप्ति में हेतु हैं, साधना का अंग हैं। यह नियम है कि जिस साधन-सामग्री से हम पुण्य या सेवा करते हैं उसकी ममता मिट जाती है। जिन व्यक्तियों की हम सेवा करते हैं उनकी आसक्ति हट जाती है। ममता व आसक्ति दूर हो जाने से उनसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता हैं, जिससे पराश्रय छूट जाता है तथा स्वाधीनता रूप मुक्ति की उपलब्धि होती है। पुण्य के अभ्युदय से ही प्राणी की आध्यात्मिक साधना की भूमिका तैयार होती है। पुण्योदय से प्राणी अपनी इन्द्रियों का विकास करता हुआ एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय बनता है; मानव भव, स्वस्थ शरीर, बल, बुद्धि आदि पाता है जिनसे उसमें साधक होने की पात्रता आती है, फिर पुण्योदय से ग्रंथि - भेद होकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, संवर और तप की सिद्धि होती है तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है । [ 84 ] जैतत्त्व सा
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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