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________________ भासती है जैसे मकान मिलने में व कार मिलने से अपने निवास व जाने-आने में व्यक्ति अपने को स्वाधीन होना मानता है, परन्तु वास्तव में तो वह अपने निवास में मकान के आधीन है, जाने-आने में कार के पराधीन है। इसी प्रकार देखने, सुनने, खाने-पीने, आदि की जो वस्तुएं कभी इष्ट लगती हैं वे ही कालान्तर में अनिष्ट लगती हैं, अतः यह स्वभाव नहीं है, विकार है, विभाव है। स्वभाव में स्थित होना ही मोक्ष है। स्वभाव में स्थित होने में सत्य का अनुभव करने में मानव मात्र सब काल में, सर्व देशों में, सब परिस्थितियों में स्वाधीन व समर्थ है, इसमें लेशमात्र भी पराधीनता नहीं है। इस दृष्टि से शान्ति, स्वाधीनता, अमरत्व, चिन्मयता प्राप्त करने में मानव मात्र, सब काल, सब क्षेत्र, सब परिस्थिति में समर्थ एवं स्वाधीन है, क्योंकि ये सबको सदैव, सर्वथा प्राप्त ही हैं, केवल व्यक्ति अपने स्वयंसिद्ध निज ज्ञान का अनादर कर इनसे विमुख हुआ है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति इन्द्रिय ज्ञान के आधार पर, इन्द्रियों के विषय भोगों की अनुकूलता को सुखद, सुन्दर व स्थायी मानकर उनकी सुखासक्ति में, सुख लोलुपता की दासता में अर्थात् इनके राग में आबद्ध हो गया है। जबकि वास्तविकता यह है कि इन्द्रियों के विषय और इनके साधन शरीर, इन्द्रिय आदि व इनका सुख नश्वर है, क्षणभंगुर है, अस्थायी है। सड़न-गलन युक्त होने से इनकी सुन्दरता भी कुरूपता में परिवर्तित होने वाली है। परन्तु इन्द्रिय ज्ञान के प्रभाव से मानव विषयभोगों के सुख की दासता में आबद्ध हो जाता है, जिससे कामना, ममता, देहाभिमान, राग, द्वेष, मोह आदि दोष उत्पन्न होते हैं और इनके फल के रूप में प्राणी अशान्ति, अभाव, चिन्ता, भय, पराधीनता आदि अनिष्ट वैभाविक दशा के दुःख भोगता रहता है। दुःख को सहन करता रहता है, परन्तु विषय सुखों, सुविधाओं, सामग्री की दासता का त्याग नहीं करता, इनके राग में आबद्ध रहता है, यह निज ज्ञान का अनादर है, जो भयंकर भूल है। भूल से ही अर्थात् स्वयं-सिद्ध निज ज्ञान के अनादर से ही दोषों की और दोषों से दु:खों की उत्पत्ति होती रहती है। दोष स्वाभाविक नहीं हैं, ये स्वतः पैदा नहीं होते हैं। दोष मानव स्वयं पैदा करता है, अतः दोष को पैदा करने या न करने में मानव मात्र सदैव समर्थ व स्वाधीन है। विषय-सुख की लोलुपता के राग से ही समस्त दोष पैदा होते हैं। राग का त्याग करने के लिए किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, देश, काल, अभ्यास व अनुष्ठान की अपेक्षा व आवश्यकता नहीं है, अत: मानव मात्र विषय सुखों में अनित्यता, पराधीनता, चिन्ता, जड़ता आदि की जैनतत्त्व सार [IX]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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