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________________ . ७७ धराशायी कर देने वाले वचन-कुठारों के प्रहारों तथा दूसरों के प्रति दूषित विचारों को भी भगवान महावीर नं हिंसा कहा है । इन सभा कुवृत्तियों से बचना अहिंसा है। इसी लिए भगवान की अहिंसा सवव्यापी अहिंसा थी। अहिंसा के परिपालक सभी हो सकते हैं । साधु और गृहस्थ दोनों अहिंसा-सरोवर में गोते लगा कर अपने जन्म-जन्म के कर्म मल को धो सकते हैं। किसी पर किसी भी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं है। वैसे गृहस्थ को निरापराधी और निर्दोष प्राणियों की हिंसा से सदा अपने को बचाना चाहिए, और साधुजीवन के सन्मुख कोई जीवन-शत्रु भी आ जाए तो साधु को उसे भी प्रेम से निहारना चाहिए, स्वप्न में भी उस के अनिष्ट का संकल्प नहीं करना चाहिए । यही अहिंसा का व्यावहारिक रूप है। अपरिग्रह- भगवान महावीर ने अपरिग्रह पर उतना ही अधिक जोर दिया है, जितना कि अहिंसा पर। आवश्यकता से अधिक धनादि रखना ही परिग्रह है और यह एक प्रकार का पाप है। परिग्रह का अर्थ है परि-समन्तात् मोहबुद्ध्या गृह्यते य स परिग्रहः ____ अर्थात् मोहबुद्धि के द्वारा जिसे चारों ओर से ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है। परिग्रह इच्छारूप, संग्रहरूप और मू रूप इन भेदों से तीन प्रकार का होता है । अनधिकृत साधनसामग्री को पाने की इच्छा करने से इच्छारूप परिग्रह, वर्तमान में मिलती हुई वस्तु को ग्रहण करना संग्रहरूप परिप्रह और संगृहीत वस्तु पर ममत्व भाव और आसक्ति रखना मूर्छा
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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