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________________ इनका हूँ।' परन्तु इनमें से कोई भी आपत्तिकाल में त्रास तथा शरण का देने वाला नहीं। ६०-- जहह सीहो व मिथं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तस्संसहरा भवन्ति ॥ (उत्तरा० अ० १३ -२२) जिस तरह सिंह हिरण को पकड़ कर ले जाता है, उसी तरह अन्त समय मृत्यु भी मनुष्य को उठा ले जाती है । उस समय माता, पिता, भाई आदि कोई भी उसके दुःख में भागीदार नहीं होले--परलोक में उसके साथ नहीं जाते। ६१-- जे य कन्ते पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठी कुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ ति वुच्चइ । (दश० अ० २-३) जो मनुष्य सुन्दर और प्रिय भोगों को पा कर भी पीठ फेर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगों का परित्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है। ६२-- वत्थगन्धमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुजन्ति, न से चाइत्ति बुच्चई ॥ (दश० अ०२-२) जो मनुष्य किसी परतन्त्रता के कारण वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्री और शयन आदि का उपभोग नहीं कर पाता, यह सच्चा त्यामी नहीं कहलाता।
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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