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________________ ६६ ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है | देखो न, पहले केवल दो मांसे सुवर्ण की आवश्यकता थी, पर बाद में करोड़ों से भी पूरी न हो सकी । ५४ -- सुवरण -- रुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा हु आगाससमा अन्तिया ॥ ( उत्तरा० अ० ६-४८ ) चाँदी और सोने के कैलास के समान विशाल असंख्य पर्वत भी यदि पास में हों, तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिये वे कुछ भी नहीं । कारण कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है । ५५ -- खयमित्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा | संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अत्था उ कामभोगा || ( उत्तरा० अ० १४--१३ ) काम-भोग क्षणमात्र सुख देने वाले हैं चिर काल तक दु:ख देने वाले हैं । उन में सुख बहुत थोड़ा है, अत्यधिक दुःख ही दुःख है । माक्ष-सुख के वे भयंकर शत्रु हैं, अनर्थों की खान है । ५६ -- जहा किंपागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो । एवं भुक्ताय भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो || ( उत्तरा० अ० १६ --१७)
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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