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________________ मनुस्मृतिकार ने अशुभ कर्म को मानस, वाचनिक और कायिक इन भेदों से तीन भागों में विभक्त किया है। तीनों की कारण-सामग्री का विश्लेषण करते हुए वहां लिग्बा है दूसरे के धन को अन्याय से ग्रहण करने का चिन्तन करना, दूसरों का अनिष्ट करने की इच्छा रखना, परलोक नहीं है, यह शरीर ही आत्मा है, ऐसा मिथ्या विश्वास बनाए रखना, यह विविध मानस अशुभ कर्म कहा गया है । कठोर वचन कहना, झूठ बोलना, परोक्ष में किसी के दोष कहना, असम्बद्ध (अनर्थकारी) प्रलाप करना, यह चतुर्विध वाचनिक कर्म होता है । पर द्रव्य का अपहरण करना, हिंसाजनक कार्य करना, पर स्त्री के साथ मैथुन करना, यह त्रिविध शारीरिक कर्म कहलाता है। मनुस्मृति में त्रिविध अशुभ कर्मों के फल का भी निर्देश किया गया है । वहां लिखा है कि शारीरिक अशुभ कर्म से जन्मान्तर में मनुष्य स्थावर (वृक्ष आदि) बनता है तथा वाणी दोष से पशु, पक्षी और मानसिक अशुभ कर्म से मनुष्य चाण्डाल योनि पाता है ।* . ____मनुस्मृतिकार के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पशु-पक्षी की योनि को प्राप्त करने का कारण "दीपमाला की रात्रि में जूए का न खेलना" नहीं है । मनुस्मृति की मान्यता के अनुसार वही मनुष्य पशु बनता है, अर्थात् गधे की योनि को प्राप्त करता है, जो झूठ बोलता है, निंदा-चुगली करता है, ऊलजलूल बातें बनाता है । यदि मनुस्मृति को "दीपमाला की रात्रि को जूआ न खेलने वाला गधा बनता है। यह बात इष्ट होती तो वह पशु-पक्षी की योनि को प्राप्त करने की कारण सामग्री *देखो-मनुस्मृति अ० १२, श्लोक ५ से लेकर ६ तक ।
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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