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________________ जूआ केवल धर्म-शास्त्रों के द्वारा ही निषिद्ध नहीं बतलाया गया है प्रत्युत नीतिशास्त्र भी जुए का सर्वथा अनादर करते हैं । नीतिकारों की दृष्टि में जूए का क्या स्थान है ? इसे नीचे के श्लोक में देखिये न श्रियस्तत्र तिष्ठन्ति, घ् तं यत्र प्रवर्तते । न वक्षजातयस्तत्र, विद्यन्ते यत्र पावकाः ॥ इस पद्य में जूए को अग्नि के तुल्य कहा गया है । अग्नि की तरह जूश्रा जीवन का नाश करता है। जिस भूमि पर सदा आग जलती रहती है, अग्नि की ज्वालाओं ने जिस भूमि को दग्ध कर डाला है, उस की उत्पादन शक्ति को समाप्त कर दिया है, उस भूमि पर वृक्ष कभी उत्पन्न नहीं हो सकते, किसी प्रकार की वनस्पति वहां नहीं लहलहा सकती । नीतिकार बतलाते हैं कि जैसे अग्नि द्वारा दग्ध हुई भूमि में किसी प्रकार के घास-फूस का जन्म नहीं हो सकता, वैसे ही जिस जीवन को जूए की आग जला रही है, जुए की ज्वालाओं ने जिस जीवन-भूमि को भस्मसात कर दिया है, वहां वसन्त नहीं आ सकता, लक्ष्मी का वहां वास नहीं हो सकता । लक्ष्मी वहां से प्रस्थान कर कर जाती है । जूआरी के यहां कभी लक्ष्मी नहीं खेला करती, वहां तो दरिद्रता तथा दीनता का ही सर्वतोमुखी साम्राज्य हुआ करता है। सैम्युएल क्लीमेंस (Samuel Clemens) नाम के एक विदेशी विद्वान हो गये हैं । जूए के सम्बन्ध में उन्होंने जो अपना अभिप्राय साहित्यजगत में उपस्थित किया है, वह भी मननीय है। उसे भी जान लेना उपयुक्त रहेगा। वे लिखते कर जाती है। नहीं हो सकता वसन्त नहीं आस जीवन-भूमि
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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