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________________ उडीसा में जैन धर्म का प्रचार विश्वनाथ वर्मा प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के ज्ञान के साधन स्वरूप यहाँ की विभिन्न धार्मिक परम्पराओं का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। इन धार्मिक परम्पराओं में मूलतः ब्राह्मण, जैन, एवं बौद्ध परम्परायें प्रमुख हैं। जिनके अनुयायियों ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की जटिलताओं को सुगम बनाने के लिए अपने-अपने साहित्य में सच्चे आचारों एवं विचारों का प्रतिपादन किया है। यही प्राचीन परम्पराएं हमारे अतीत की थाती हैं। भारतीय जन-जीवन की भौतिक एवं आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के साधन स्वरूप इन धार्मिक परम्पराओं का ऐतिहासिक अध्ययन भी आवश्यक है। जैन परम्पराओं का सृजन अति प्राचीन रहा है। बौद्धग्रन्थ दीघनिकाय में निर्ग्रन्थ धर्म के चातुर्याम का उल्लेख है। इस चातुर्याम धर्म का उपदेश महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ ने ही दिया था। महावीर स्वामी ने इसी धर्म का अनुकरण किया था और इन चातुर्यामों अर्थात् सत्य, अहिंसा, अचौर्य एवं अपरिग्रह में एक और व्रत अर्थात् ब्रह्मचर्य जोड़कर इस धर्म के अन्तर्गत पांच महाव्रतों के पालन का उपदेश दिया। वैदिक काल में उल्लिखित व्रात्य श्रमण धर्म के प्रारम्भिक रूप थे और जैन धर्म के अनुरूप आचरण करते थे। स्पष्टतः महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म एवं जैन आचारावली का प्रारम्भ ऋग्वैदिक काल से ही हो गया था, जो वैदिक धर्म के विरोधी ऋषभदेव द्वारा चलाये हुए यति धर्म अथवा मुनिधर्म के रूप में उदित होकर एक के बाद एक करके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के काल तक उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय अथवा जैन धर्म के रूप में सामने आया। 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति 'जिनन्' अराधना से हुई। 'जिन्' शब्द का अर्थ 'जेता' होता है जिसे अर्हत् अर्थात् तीर्थंकर कहा जाता है।
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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