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________________ 72 बौद्ध परम्परा में पेय - जल व्यास मुनि मिश्र - जीवन के अनिवार्य तत्त्वों में जल महत्त्वपूर्ण घटक है। सृष्टि के आरम्भिक दिनों से ही जीवधारियों के लिए जल-पान एक अनिवार्य आवश्यकता है। छान्दोग्य उपनिषद में जल के महत्त्व को दृष्टिगत करते हुए 'प्राण' को जलमय कहा गया है।' अथर्ववेद में जल न पीने वाले व्यक्ति का मुख शुष्क हो जाने का प्रसंग है । अन्न से अधिक महत्त्व पेय जल का है। क्योंकि अन्नाभाव में व्यक्ति केवल जल मात्र पी कर 15 दिनों तक जीवित रह सकता है। ऐसी मान्यता छान्दोग्य उपनिषद की है। साथ ही ऋग्वेद में जल को मातृत्व स्वरूपा कहा गया है । बुद्धयुगीन सभी नगरों में पेय जल की उचित व्यवस्था देखने को मिलती है। तत्कालीन जन वर्षा, नदी, तड़ाग, कूप, पुष्पकारिणी आदि जल स्रोतों के जल का उपयोग पेय हेतु करते थे । बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध अपने जीवन के अन्तिम क्षण में आनन्द से जल पीने की इच्छा प्रकट करते हैं, तथा नदी सदृश जल-स्रोत से जल लाने को कहते हैं। आनन्द वहाँ जाते हैं किन्तु पानी को मलिन देख वापस आ जाते हैं। भगवान के विशेष आग्रह पर आनन्द वहाँ पुनः गये। इस बार नदी का जल स्वच्छ था और तथागत ने उस जल को ग्रहण कर अपनी प्यास बुझाई। ककुत्था नदी में भी बुद्ध द्वारा स्नान एवं पेय (नहात्वा च पिवित्वा च ) का संदर्भ हमें प्राप्त होता है।' रामायण में श्रवण द्वारा अपने माता-पिता के लिए जल लाने का प्रसंग भी कुछ इसी प्रकार है । महाभारत में भी तपस्वी तथा द्विज लोगों द्वारा नदी जल सेवन का उल्लेख है। मनुष्यों के साथ जल- जीवों और वन्य जीवों का जलाशय नदी ही होता है।
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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