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________________ 356 श्रमण-संस्कृति प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया। यह धर्म भारत एवं वृहत्तर भारत जैसे-श्रीलंका, वर्मा, तिब्बत, चीन, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, चम्पा, स्याम आदि अनेक देशों में फैला। . महात्मा बुद्ध के धार्मिक सिद्धान्त इतने सरल और सुबोध थे कि लोग उनके प्रति अपने आप आकृष्ट होते थे। जीवन से सम्बन्धित उनकी अभिव्यक्तियों और निर्देश अत्यन्त बोधगम्य और सहज थे। इसमें न किसी पण्डित की आवश्यकता पड़ती थी न पुरोहित की। इस धर्म को सरलता पूर्वक आत्मसात् करके अनुपालन किया जा सकता था। बौद्ध धर्म का चिन्तन और दर्शन पक्ष जटिलताओं और कर्मकाण्डीय व्यवस्था से दूर सरल और सुगम था अतः लोग जनभाषा के माध्यम से इस नये धर्म को समझ सकने में समर्थ हुए। उस समय जनभाषा पालि थी, जिसमें महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश दिये। इसके विपरीत संस्कृत क्लिष्ट और साहित्यिक भाषा थी, उसे साधारण जनता समझ सकने में असमर्थ थी। अतः भाषा की सहजता भी एक कारण था कि लोग बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए। बौद्ध धर्म में जात-पात और ऊंच-नीच का अभाव था। इसमें न कोई जाति-भेद था, न वर्ग-भेद। सभी मनुष्य बराबर थे। सभी जातियों के लोग इस धर्म को ग्रहण कर सकते थे। दलित और निम्न जाति के लोगों के लिए तो यह सुनहरा अवसर था, जहाँ बिना किसी भेद-भाव के लोग इस धर्म में दीक्षित और अनुग्रहित किये जा सकते थे। इस धर्म में नैतिकता और आचरण पर अधिक बल दिया गया था। क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों ने इस धर्म को निर्द्वन्द्व होकर स्वीकार किया। ब्राह्मण धर्म की क्रियाएं और कर्मकाण्डीय व्यवस्थाएं अत्यन्त व्ययसाध्य थीं तथा छोटे-छोटे सभी धार्मिक कार्यों में धन व्यय होता था। निर्धन और निम्न जाति के लोग अधिक धन खर्च नहीं कर सकते थे अतः उन जातियों ने बौद्ध धर्म के प्रति अपना अनुराग प्रकट किया, जो व्ययसाध्य धर्म नहीं था। वहाँ केवल व्यक्ति की नैतिकता और सच्चरित्रता पर बल दिया जाता था, जिसके कारण विद्रोही और क्रान्तिकारी प्रवृत्ति के लोगों ने बौद्ध धर्म का अनुसरण किया और इसका प्रसार किया।
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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