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________________ 34 बौद्ध दर्शन में कर्म : एक अध्ययन विजय कुमार कर्म शब्द संस्कृत भाषा के कृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है करना। व्यक्ति किसी कर्म को करता है तथा उसके बदले में कर्मफल को प्राप्त करता है एवं वही कर्म फल व्यक्ति को अन्तिम कार्यों के लिए प्रवृत्त करता है। इस प्रकार कर्म के फल तथा फल से कर्म का चक्र चलता रहता है। आदिकाल से जीवन की धारा इसी क्रम में प्रवाहित हो रही है। इसी को कर्म चक्र भी कहते हैं। कर्म फल का त्याग क्लेशों से मुक्त कर देता है। बौद्ध धर्म में भी कर्म व्यक्ति के कायिक, मानसिक एवं वाचिक व्यापार को कर्म की संज्ञा प्रदान की गयी है। भगवान बुद्ध का विचार था कि चेतना ही भिक्षुओं का कर्म है। चेतना के द्वारा कर्म, काया, वाणी या मन से कर्म करता है। बौद्ध दर्शन की यह मान्यता है कि चेतना के होने पर कायिक, मानसिक, वाचिक, किसी भी प्रकार का व्यापार कर्म है। अतः चेतना को ही कर्म मानना युक्तिसंगत है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म दर्शन में व्यक्ति के कायिक मानसिक एवं वाचिक व्यापार में चेतना को प्रधानता प्रदान किया गया है। बौद्ध धर्म को चेतना का परमार्थ कर्म के अन्य पक्षों पर प्रकाश डालता है। इसमें चेतना शब्द पर अधिक बल देने का मुख्य कारण यह है कि किसी भी प्रकार के व्यापार में चेतना का होना परम आवश्यक है। बौद्ध धर्म दर्शन में बन्धन का कारण केवल चैतसिक होता है। बौद्ध धर्म में अविद्या, वासना, तृष्णा, आसक्ति आदि चैतसिक तत्त्वों को बन्धन का कारण बताया गया है। आग्रव को बन्धन का कारण बताया गया है। बौद्ध दर्शन में आग्रव तीन प्रकार के बताये गये हैं- भव, विद्या तथा काम। भगवान
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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