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________________ श्रमण-परम्परा में दिशा-पूजा : एक अनुशीलन 27 निरयावली सूत्र में वाराणसी में निवास करने वाले सोमिल नामक एक दिशापोक्खी का उल्लेख हुआ है। इस सोमिल ने भी उपर्युक्त विधि से दिशाओं का पूजा की थी। द्रष्टव्य है कि उपर्युक्त साक्ष्यों में वर्णित दिशा पूजा सम्बन्धी विधि-विधान बौद्ध ग्रन्थ दीघ-निकाय के सिगालोवाद सुत्त के विधि-विधानों की अपेक्षाकृत अधिक जटिल हैं। उपर्युक्त वर्णित साक्ष्यों से दिशा पूजा पर वैदिक एवं लौकिक धर्मों का प्रभाव परिलक्षित होता है। भगवती सूत्र एवं निरयावली सूत्र में वर्णित दिशा-पूजकों द्वारा दिशाओं की पूजा के अतिरिक्त पूर्व में सूर्य, दक्षिण में यम, पश्चिम में वरुण तथा विश्वेदेवों की पूजा दिशा-पूजा पर वैदिक धर्म के प्रभाव को अभिव्यंजित करती है। दिशा पूजकों द्वारा वेदी का निर्माण तथा उस वेदी पर अग्नि प्रज्जवलित कर घृत एवं मधु की आहुति देना दिशा पूजा पर याज्ञिक विधि-विधानों के प्रभाव का परिणाम है। वैश्रवण (कुबेर) की उत्तर दिशा में पूजा दिशा-पूजा पर यक्ष-पूजा के प्रभा का प्रतिफल है। दिशाओं से देवताओं को सम्बन्धित करने की परम्परा जैन धर्म में प्रचलित थी। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इन्द्र, अग्नि, यम, नैश्रत, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा तथा नाग को क्रमशः पूर्व, दक्षिण-पूर्व, दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम, पश्चिम, उत्तर-पश्चिम, उत्तर, उत्तर-पूर्व, तथा ध्रुव दिशा का दिक्पाल माना गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में केवल आठ की ही परिकल्पना है। आचारंग सूत्र में यह यह आख्यान प्राप्त होता है कि भगवान महावीर के परिनिर्वाण के समय उनकी पालकी को पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर दिशाओं की ओर से क्रमशः सुर, असुर, गरुड़ तथा नागों ने ढोया था। संभव है कि ये चारों देवगण भी जैन में दिक्पाल के रूप में मान्य रहे हों। दिशा पूजा के प्रमाण हमें कालान्तर में भी प्राप्त होते हैं। पूर्व मध्यकालीन ग्रन्थों में आशा दशमी नामक एक व्रत का उल्लेख हुआ है। इस सन्दर्भ में यह विधान प्राप्त होता है कि इस व्रत में किसी महिने की शुक्ल दशमी को दसों
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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