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________________ जैन धर्म का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव 177 स्वाध्यायः श्रेयसे मतः मानवीय एकता, सह-अस्तित्व, समानता और सर्वोदयता (अनेकान्तवाद) धर्म के तात्विक अंग हैं। एकान्तवादी चिन्तकों द्वारा इन अंगों को तोड़ मरोड़ कर स्वार्थवश वर्गभेद और वर्णभेद जैसी विचित्र धारणाओं की विषैली आग को पैदा किया जाता है। जिसमें समाज की कुवृत्ति वैचारिक धरातल से असम्बद्ध होकर कूद पड़ती है। अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन समस्त विषमताओं से आपादमग्न समाज को एक नई दिशा देता है। उसकी कटी पतंग को किसी प्रकार सम्भाल कर उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर मजबूत और सामुदायिक चेतना से सजी डोर लगा देता है। समन्वय की मनोवृत्ति समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने एकपक्षीय व्यक्तिगत विचारों की आहुति देने के लिए, निष्पक्षता, निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता से पूर्ण समाज को धूल-धूसरित होने से बचने के लिये। हरिभद्रसूरि की समन्वय-साधना इस सन्दर्भ में स्मरणीय भववीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णु ा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।। चिन्तन और, भाषा के क्षेत्र में न या सियावाय वियागरेज्जा का उपदेश समाज और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्ण न्याय देकर सरल, स्पष्ट और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता ___ कलात्मक अवदान के क्षेत्र में जैनियों को विस्मृत नहीं किया जा सकता। कला आत्मानुभूति का पर्यायार्थक शब्द है। इसका सम्बन्ध मूल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति से है। जैन संस्कृति में कला का मूल उद्देश्य अध्यात्म की अभिव्यक्ति है और समस्त अभिव्यक्तियां उसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। जैन साधकों ने मूर्तिकाल, वास्तुकला, अभिलेख, पाण्डुलिपि, चित्रशैली आदि सभी क्षेत्रों को परिष्कृत किया है। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोहानीपुर से प्राप्त मस्तक विहीन नग्न कायोत्सर्गी मूर्तियों को जैनों का महत्वपूर्ण मूर्तिकला अवदान कहा जा सकता है। जिस पर नन्दकालीन कलिंग जिन मूर्ति
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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