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________________ 146 श्रमण-संस्कृति सुत्तकार ने गान के आठ गुण बतलाये है - पूर्ण, रत्तं, अलंकिय, वत्त, अविघुटुं, मधुरं, साम और सुकुमारं। पूर्ण वह है कि जिसमें स्वर का उच्चारण उन्मुक्त कंठ से किया जाए । रक्त में रंजकता अथवा रसात्मकता विद्यमान होती हैं। विविध स्वरों का परस्पर गठन अलंकृत के लिए कारण होता है। वत्तं का अर्थ स्वर ओर पद के स्पष्टता से अर्थात् स्वर तथा शब्द का स्फुट उच्चारण व्यक्त (वत्तं) कहलाता है। आक्रोश से विहीन किन्तु उच्चैः स्वर से गायन अविघुष्ट (अविघुटुं) कहलाता है। कोकिला के समान मधुरस्वरयुक्त गान मधुर कहलाता है। वेणु, स्वर तथा ताल सामंजस्य सम कहलाता है। सुकुमार वह लालित्य गुण है जो स्वर के साथ नितांत तादात्म्य के कारण है। गीत को मधुर बनाता है। सुत्तकार के अनुसार स्वरों के नाम इस प्रकार दिये गये हैं - सज्जे रिसहे गन्धारे मज्झिमे पंचमे सरे। धेवते चेव णिसाते सरा सत्त विआहिया।' अर्थात् सज्ज (षड्ज), रिसह (ऋषभ), गांधार, मज्झिम (मध्यम), पंचम, धैवत और णिसात (निषाद्) ये सात स्वर इसमें व्याख्यात (विआहिय) है। स्वरों के उत्पन्न होने के स्थान को इस ग्रन्थ में इस प्रकार बताया गया है - षड्ज अग्रज है, उर स्थान से ऋषभ उद्भूत होता है। कंठ से गांधार, मध्य से मध्यम, नासा से पंचम तथा दंतोष्ठ से धैवत का उद्भव माना गया है। सज्जं तु अग्गजे आए उरेण रिसभं सरम्। कण्ठुग्गाएण गन्धारं मज्झ जिआए मज्झिमम् ।। सासाए पंचमं बूया दंतोठेणय धैवयम्। मुद्दाणेणयणे सायं सरठाणा वियाहिया।। इसी प्रकार की परंपरा नारदीय शिक्षा तथा मतंग की वृहद्देशी में पाई जाती है। यद्यपि विभिन्न स्वरों के उत्पत्ति-स्थान के संबंध में अंतर पाया जाता है। नारद के अनुसार षड्ज कंठ से उत्पन्न होता है, ऋषभ शिर से, गान्धार आनुनासिक्य है, उर के मध्यम स्वर की उत्पत्ति होती है। पंचम उर शिर और कंठ से उत्पन्न होता है, ललाट से धैवत और कंठ इत्यादि की संधियों से निषाद उत्पन्न होता है।" स्वरों की तारता का निर्धारण पशु-पक्षी की ध्वनि से की गई है, जैसे
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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