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________________ राजस्थानी जैन साहित्य शताब्दी से माना जा सकता है। ये मुनि प्राकृत-भाषा में साहित्य लिखते थे। प्रथम जैन साहित्यकार का गौरव भी राजस्थान की भूमि को ही प्राप्त कहा जाता है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर राजस्थान के प्राचीनतम साहित्यकार थे। राजस्थान के जैन मुनियों को साहित्य के लिए प्रेरित किया यहां की राज्याश्रय प्रवृत्ति, धर्मभावना एवं गुरु और तीर्थंकरों की भावोत्कर्षक मूर्तियों ने । जैन परम्परा में उपाध्याय पद की इच्छा ने भी इन मुनियों को श्रेष्ठ साहित्य की रचना के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार श्रमण-संस्कृति के परिणामस्वरूप राजस्थान की इस पवित्र गौरवान्वित भूमि पर उत्कृष्ट कोटि का जैन-धार्मिक साहित्य का भी अपनी विशिष्ट शैलियों में सृजन होने लगा। अपनी साहित्यिक विशिष्टता के कारण यह साहित्य जैन-शैली के नाम से जाना जाता है। जैन शैली के अद्यतन प्रमुख साहित्यकारों के नाम हैं—आचार्य सिद्धसेन, आचार्य हरिभद्र, उद्योतनसूरि, जिनेश्वरसूरि, महेश्वरसूरि, जिनदत्तसूरि, शालिभद्रसूरि, नेमिचन्द्र सूरि, गुणमाल मुनि, विनयचन्द्र, सोममूर्ति, अम्बदेव सूरि, जिनपद्म सूरि, तरुणप्रभसूरि, मेरुतनंदन, राजेश्वर सूरि, जयशेखरसूरि, हीरानन्द सूरि, रत्नमण्डन गणि, जयसागर, कुशललाभ, समयसुंदर गणि, ठक्कुर फेरु, जयसिंह मुनि, वाचक कल्याणतिलक, वाचक कुशलधीर, हीरकलश मुनि, मालदेवसूरि, नेमिचन्द भण्डारी, आचार्य श्री कालूरामजी, आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री घासीरामजी, आचार्य श्री आत्माराम जी प्रभृति । इन सभी साहित्यकारों ने यों तो जैन धर्म से सम्बन्धित रचनाओं का ही सृजन किया, जिनका प्रधान रस शान्त है, किंतु गहराई के साथ अध्ययन के उपरान्त यह साहित्य जनोपयोगी भी सिद्ध होता है। जीवन से सम्बन्धित विविध विषय एवं सृजन की विविध विधाएं इस साहित्य में उपलब्ध होती है । यद्यपि इस साहित्य में कलात्मकता का अभाव अवश्य है, किन्तु भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से समस्त राजस्थानी जैन साहित्य शोध के लिए व्यापक क्षेत्र प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त 13-15 वीं शताब्दी तक के जैनेत्तर राजस्थानी ग्रन्थ स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं है, उसकी पूर्ति भी राजस्थानी जैन साहित्य करता है। 17 वीं शताब्दी राजस्थानी जैन साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाना चाहिए। इस समय तक गुजरात एवं राजस्थान की भाषाओं में भी काफी अन्तर आ चुका था। किन्तु जैन साधुओं के विहार दोनों प्रान्तों में होने से तथा उनकी पर्यटन-प्रवृत्ति के 1. पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ, पृ. 199
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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