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________________ वात ॥ १४ ॥ वानर तो तिर्यंचनी जाति, व्यंतर राक्षस होये नाति ॥ पशु व्यंतर केम होय युक, ए सहु जाणो महा विरुफ ॥ १५ ॥ विद्याधर विद्यावल चाले, गिरि उचलतां ततक्षिण काले॥कदाचित् होये तो सबली होय, सागर बंधन घटतुं जोय ॥१६॥ मनोवेगे कथा कही साची, पवनवेग मनमा रह्यो राची ॥ जिनवर वचन कर्यां अंKागीकार, मिथ्या वचन कीधां परिहार ॥ १७ ॥ पांचमा खंक तणी ढाल, चोथी कहीए निपट रसाल ॥ रंगविजय शिष्य एम बोले, नेमविजयने नहीं को तोले ॥१७ उहा. | पवनवेग कहे जाश्ने, रावण केरो वृत्तांत ॥ के मिथ्यातिए अने, के जिनशासन सांत ॥ १॥ मनोवेग कहे सांजलो, रावण केरी वात ॥ जेम निश्चय तुमने पडे, नांगे मननी ब्रांत ॥२॥ त्रिकुट गढ लंका तणो, मोटो महीयल मांहीं ॥ रावण राज तिहां नोगवे, हार तणे महीमाहीं ॥३॥ त्रिखंड राज्य तणो धणी, नव ग्रह बांध्या पाय ॥ वीश नुजा तेणे करी, सुर नर सेवे पाय ॥४॥ त्रीश सहस वर्षों तणी, श्रायुस्थिति कहेवाय ॥ नव धनुष काया तणो, मान कह्यो जिनराय ॥ ५॥ बत्रीश सहस नारी अडे, पुत्र पुत्री परिवार ॥ जामाताए जस घणा, कहेतां नावे
SR No.022846
Book TitleDharm Parikshano Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1913
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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