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________________ [ ४९ ] २ - " मुहपत्ति" भाषा समिति के पालने में अनिवार्य उपधि है। 66 ३ -- पीछी और "रजोहरण (ओघा ) यह जैन मुनि का लिंग है; अहिंसा का साधन है । श्रा० कुंद कुंद ने भी आकाश में जाते समय इस मुनिलींग ( बाना ) को ही प्रधान माना है । ४ – " केसरिका" से यथार्थ प्रति लेखना होती है चारित्र प्राभृत गा० ३६ की टीका में इसी की ही स्वीकृति दी है । ५ - जीवाकुल भूमि में जीवों की दया के निमित दंडासण रखना चाहिये जिससे उनकी फलियों का परिघ बनाया जाय तो भी दोनों पैर के लिये फासुक जगह मिल जाती है, रात्रिको देह चिंता के लिये जाने आने में दंडासण से ही इर्यासमिति पाली जाती है । ६- पात्र के अभाव में मुनि को एक स्थान से ही आहार लेना पडता है । जिसमें गोचरी की शुद्धी नहीं हो सकती है । गाय चरती है तब थोडा २ खाते २ आगे बढती जाती है कहीं एक स्थान से ही घास को समूल नष्ट नहीं कर देती है ऐसा करने से उसकी चरभूमि हरी भरी रहती है । इसका नाम है "गो-चरी" । भौरा विभिन्न फूलों से अल्प अल्प रस को पीकर संतुष्ट रहता है । और ऐसा भी नहीं करता है जिससे फूलों को पीडा हो इस विधि का नाम है "भ्रामरी" यानी "मधुकरी" । गधा जहाँ चरता है वहाँ से घास बिलकुल खा जाता है यानि बिलकुल सफाचट कर देता है । इस विधि का नाम है "गधाचरी” मुनि को पात्र के अभाव में उपरोक्त कथनानुसार गोचरी और मधुकरी तो हो ही नहीं सकती है ! एक स्थान पर अहार लेने से अल्प कौटुम्बिक को तो कभी दुबारा रसोई करनी पडती है, आधाकर्मिक श्रद्देशिकादि दोष भी लगते हैं, गुरुभक्ति साधर्मिक भक्ति या ग्लान वैयावृत्य को तिलांजली ही
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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