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________________ अल्प वस्त्र से चलाना पडे या बिना वस्त्र रहना पडे उस हालत में अचेल परिषह माना जाता है जो संवररूप है और वस्त्र को छोड कर बैठ जाना वह "काया क्लेश" रूप तपस्या है । भूलना नहीं चाहिये कि मुनि धर्म में संवर अनिवार्य है और तपस्या यथेच्छ है . इस हिसाब से स्पष्ट है कि मुनियों को आहार पानी अनिवार्य है वैसे ही वस्त्र धारण करना भी अनिवार्य है । यदि ये शुद्ध मिलें तो साधु इनको लेते हैं । मगर वैसे न मिले तो चुत पिपासा और अचेल परिषह को सहते हैं। ___ इस प्रकार जुत् परिषह से मुनियों के आहार का समर्थन होता है। और अचेल परिषह से मुनियों के वस्त्र का ही समर्थन होता है। - दिगम्बर-श्वेताम्बर आगम में जिनकल्पी का वर्णन है वह असली मुनि लिंग है। - जैन--जैन दर्शन स्याद्वादी है, अतः एक मार्ग का आग्रह नहीं रखता है । मैं बौद्ध प्रमाणों से बतला चुका हूं कि भगवान महावीर स्वामी के साधु वस्त्र धारक थे। उनमें से कोई मुनिजी विशेष तपस्या करना चाहते याने अधिक कायक्लेश सहने को उद्युक्त होता तो वे ज्ञानी को पूछकर जिनकल्पी भी बनते थे। जो वस्त्र युक्त रहते थे. या वस्त्र रहित भी वन जाते थे। भूलना नहीं चाहिये कि जिनकल्पी बनने वाले को कम से कम, अंग और १२ वे अंग के दशवें पूर्व की तीसरी वस्तु तक का शान और प्रथम संहनन होना चाहिये । इसके बिना जिनकल्पी बनना, जिनकल्पी बनने का मजाक उडाने के सिवाय और कुछ नहीं है । जिम. कल्पी को क्षपक श्रेणी नहीं होती है । १० पूर्व से अधिक ज्ञान वाले को जिनकल्पी रूप कायक्लेशं तपस्या करने की आवश्यकता नहीं है। 1: ... (वृहतकल्पभाष्य गा० १३८५ से १४१४, पंचवस्तु गा० १४९०)
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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