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________________ जैन-तीर्थकर ये लोकोत्तर पुरुष हैं, वे नफा नुकसान को शोचकर सब काम को करते हैं, परोपकार बुद्धिसे आवश्यकताके अनुसार गृहस्थपने में नीति की शिक्षा देते हैं, वार्षिक दान देते हैं और सर्वज्ञ होने के बाद धर्मोपदेश देते हैं दर्शन ज्ञान व चारित्र का दान करते हैं, इत्यादि सब काम करते हैं। फिर वे उपकार के लीहाज से अवधिज्ञान को प्रकाशे तो उसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥३॥ दिगम्बर-दिगम्बर मानते हैं कि-(४) तीर्थकर भगवान् को उपसर्ग होना नहीं चाहिये, किन्तु भगवान् पार्श्वनाथ को छद्मस्थ दशामें कमठद्वारा उपसर्ग हुआ, यह चौथा आश्चर्य है। जैन-तीर्थकरों को जन्म से होनेवाले १० अतिशयोमें ऐसा कोई अतिशय नहीं है कि जिसके द्वारा उपसर्ग का अभाव मान लीया जाय। इसके विरुद्धमें दिगम्बर शास्त्र केवलज्ञान होनेके पश्चात् ही तीर्थकरको ',(१५) उपसर्गाभाव" अतिशय उत्पन्न होनेका बताते हैं, इससे भी 'सर्वज्ञ होनेसे पहिले तीर्थकर भगवान् को उपसर्ग हो सके,' यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है। इसके अलावा “एकादश जिने" सूत्र से तो केवली भगवान् को भी "वध" परिषह विगेरह का होना स्वाभाविक है, तो फिर छमस्थ तीर्थकर को उपसर्ग नहीं होना चाहिये यह कैसे माना जाय?। उपसर्ग भी कर्मक्षय का साधन है। वास्तव में केवली को भी उपसर्ग हो सकता है और तीर्थकर को भी उपसर्ग हो सकता है। हां; यह संभवित है कि "जो क्रोडो देवो से पूजित हैं और जीन का नाम लेने मात्रसे ही भक्तो के उपसर्ग दूर हो जाते हैं ऐसे केवली-तीर्थकरको उपसर्ग नहीं होना चाहिये."। फिर भी इनको उपसर्ग होवे तो, उस घटना को आश्चर्य में सामील कर देना चाहिये ॥४॥ दिगम्बर-दिगम्बर मानते हैं कि-(५) सब तीर्थकरों का मोक्ष 'सम्मेतशिखर पहाड' परसे ही होना चाहिये किन्तु श्री ऋषभदेव भगवान् वगेरह ४ तीर्थकरोने अष्टापद पर्वत वगेरह ४ विभीन्न स्थानों से मोक्षगमन किया, यह पांचवा आश्चर्य है।
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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