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________________ १५ कुष्माडे, ह्रस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीव देहत्वात् कपोतशरीरे । अथवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णसाधम्र्म्यदेव कपोतकशरीरे - कूष्मांडफले एव । ते उपस्कृते- संस्कृते । तेहि नो अट्ठोत्ति बह्वपायत्वात् । माने - रंग की समता के कारण कूष्माण्ड फल ही कपोत कहे जाते है । रेवती श्राविकाने उनको संस्कार देकर रख छोडे थे । ( आ• श्रीअभयदेवसूरीकृत भग० टीका पृ० ६९१) ( आ० श्रीदानशेखरसूरिकृत भग० टीका पृ० ) कूष्मांड फल का मुरबा दाह वगेरह रोग को शान्त करता है, यह बात आज भी ज्यों की त्यों सही मानी जाती है । आज भी आगरा वगेरह प्रदेश में गरमी की मोसम में कूष्मांड का मुरबा- - पेंठा वगेरहका अधिकांश इस्तिमाल किया जाता है । मेरठ जिल्ला में भी सफेद कुम्हडा जिसका दूसरा नाम कवेला हैं उसके पैठे बहौत खाये जाते हैं । सारांश- कूष्मांडा मुरबा, पेंठा, पाक वगेरह गरमी को शान्त करनेवाले हैं । और रेवती श्राविकाने भी भगवान् महावीरस्वामी के दाह रोग की शान्ति के लीये दुवेकवोयसरीरा माने "कूष्मांड फल का मुरबा” बनाकर रक्खाथा । यहां कवोय शब्द कूष्मांड फलका ही द्योतक है । (३) " सरीरा " शब्द पर विचार " सरीरा" यह शब्द कवोय से निष्पन्न पुल्लिंगवाले द्रव्य का द्योतक है । यदि यहां "सरिराणि" शब्द प्रयोग होता तो उसका अर्थ पक्षिका सरीर भी करना पड़ता, क्योंकि नपुंसक शरीर शब्द ही शरीर या मुरदा के अर्थ में है । किन्तु शास्त्रनिर्माताको वह यहां अभीष्ट नहीं था, अत एव उन्होंने यहां नपुंसक “सरिराणि” प्रयोग लिया नहीं है । शास्त्रकार ने यहां पुल्लिंग में "सरीरा" शब्दप्रयोग किया है
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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