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________________ २९ जो प्रकृति ध्रुवउदयी है, उसका कार्य न होवे, यह कैसे हो सकता है ? उदय प्रकृति अपना कार्य अवश्य करती है, उक्त १२ प्रकृति धातु और उपधातु में अपना कार्य अवश्य करती हैं । (७) (जीने) तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिनमें अर्थात् केवली भगवान के (एकादश) ग्यारह परिषह होती हैं । छग्नस्थ जीवों के बेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंश मशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परिषह होती हैं, सो केवली भगवान् के भी वेदनीय का उदय है इस कारण केवली के भी ग्यारह परिषह होना कहा है । (मोक्षशास्त्र श्रीयुत पन्नालालजी विरचित भाषा टीका, जैन ग्रन्थ रत्नाकर ११ वां रत्न, पृ. ८३) ये सब परिषह केवली भगवान के शरीर में धातु और उपधातुओं का होना सिद्ध करते हैं । (८) गजसुकुमाल आदि अन्तकृत केवली को अंगारादिका दाह होना माना गया है तथा पांडवों को भी गरम लोहे की जंजीर का उपसर्ग होना, माना गया है । वास्तव में केवल ज्ञानीओं के शरीर में सात धातुएं व उपधातुएं हैं और अंगारादि से उनको दाह होता है यह मानना अनिवार्य होगा । ये सब प्रमाण केवलीओं के शरीर में सात धातुओं का अस्तित्व बताते हैं और परमोदारिकता के विपक्ष में जाते हैं । दिग - दिगम्बर शास्त्र के अनुसार जब केवली भगवान का निर्वाण होता है तब उनका शरीर विखर जाता है कारण ? वे सात धातुओंसे रहित हैं परमोदारिक हैं । जैन - दिगम्बर शास्त्र निर्वाण के बाद भी केवली का शरीर कायम रहता है ऐसा मानते हैं - देखिए (१) परिनिवृत्तं जिनेन्द्रं ज्ञात्वा विबुधा हाथाशु चागम्य । देवतरु रक्तचंदन कालागुरु सुरभि गोशीर्षैः । १८ अग्नीन्द्राज्जिनदेह, मुकटानलसुरभि धूपवरमाल्यैः अभ्यर्च्य गणधरानपि गता दिवं खं च वनभवने । १९ ( श्री पूज्यपाद स्वामीकृत, निर्वाणभक्ति ) (२) भगवान महावीर स्वामी मोक्षपधारे ऐसा जानकर
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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