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________________ दिगम्बर-दिगम्बर शास्त्रो में तीर्थकर वगैरहको निहारकी आजीवन साफ मना हैं । देखिये तित्थयरा तप्पियरा, हलहर चक्की य अद्धचक्की य । देवा य भूयभूमा, आहारो अस्थि, णस्थि नीहारो॥१॥ (आ० श्रुतसागरीय बोधप्राभृत टीका पृ. ९८) तित्थयरा तप्पियरा, हलहर चक्कीइ वासुदेवाहि । पडिवासु भोगभूमि य, आहारो णत्थि णिहारो । १॥ (पं० चंपालालकृत चर्चासागर चर्चा-३) माने-तीर्थकर वगैरह को जन्मसे ही निहार नहीं होता है। जैन-महानुभाव ! आहार तो लेवे और निहार न करे यह दिगम्बरीय विज्ञान तो अजीब है । कुछ भी हो किन्तु तीर्थकर, उनके पिता, चक्री, वासुदेव, युगलिक वगैरहको पुत्र पुत्री होते हैं संतान होती हैं रोग होता है, स्वेद है, मल परिषह है जब निहार होने में कौनसी रुकावट है ? फिर भी यह कथन सिर्फ तीर्थकरके निहार की ही मना करता है केवली निहार के खिलाफ नहीं है । जहाँ आहार है वहां निहार भी है। केवली भगवान आहार लेते हैं और निहार करते हैं। दिगम्बर-केवली का शरीर केवलज्ञानकी प्राप्ति होते ही परमौदारिक बन जाता है। जैन-केवली या तीर्थकर भगवान के शरीर को परमौदारिक मानना यह किसी भक्त था विद्यान की अतिशयोक्तिपूर्ण कल्पना ही है, यद्यपि उनका शरीर अतिशय सुन्दर होता है किन्तु वास्तव में तो औदारिक ही रहता है। जो बात द्रव्यानुयोग के जरिये स्पष्ट है, देखिए । (१) बारहवें क्षीणमोहनीय गुणस्थान में ऐसी कोई प्रकृतिका उदयविच्छेद परावर्तन या नामकर्मकी विशेष प्रकृति का उदय नहीं होता है कि सहसा तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थानमें औदारिक शरीर परमौदारिक बन जाय । (२) केवलज्ञानीको औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग, छ संस्थान, वर्णचतुष्क. निर्माण, तैजस, वज्र ऋषभनाराच संघयण
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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