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________________ [१६) श्रावको परिचर्याहः-प्रतिमा तापनादिषु । स्यानाधिकारी सिद्धांत-रहस्याध्ययने पि वा ॥ (धर्मामृत-श्रावकाचार ) त्रिकालयोग नियमो, वीरचर्या च सर्वथा । सिद्धांताध्ययनं सूर्य-प्रतिमा नास्ति तस्य वै ॥ (धर्मोपदेश पीयुष वर्षा कर श्रावकाचार ) ___ इन पाठों में श्रावक और श्राविका के लिये सिद्धांत वाचना का निषेध किया गया है, अतः मुनि ओर अर्जिका ही सिद्धांत वाचना के अधिकारी हैं। मान दोनों जिनदीक्षा वाले हैं पांच महावत के धारक हैं सर्वविरति हैं छंट गुणस्थान के अधिकारी हैं अत एव आगम के भी अधिकारी हैं। श्रावक वैसे न होने के कारण सिद्धा. म्त पाठ के अधिकारी नहीं है। दिगम्बर हरिवंश पुराण में दृष्टान्त भी है कि जिनदीक्षा लेने के पश्चात् जय कुमार न १२ अंगों का और सुलोचना अर्जिका न ११ अंगों का अध्ययन किया (१२-५२) । ३-सह समणाणं भणिय, समीणं तहय होइ मल हरणं । वज्जिय तियालजोगं, दिणपडिमं छेदमालं च ॥१॥ (दिगम्बर चर्चा सागर चर्चा १८६) मान-श्रमण और श्रमणिों की प्रायाश्चत्तविधि एक सी है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि श्रमणी के लिये त्रिकाल जोग, सूर्य प्रतिमा योग और छेदमाल का निषेध है। ४-महत्तराप्यार्यिकाभि वंदते भक्तिभाविता । ... अद्य दीक्षितमप्याशुवतिनं शान्तमानसं ॥ (नीति सार) साधु और अर्जिका दोनों दीक्षा वाले हैं, इस हालत में छोटामुनि बड़ी अर्जिका को बन्दन कर यह स्वाभाविक था, मुनि पद की हैसियत से यह होना संभवित ही था, अतः उसमें यह विशेष व्यवस्था की गई है कि-महत्तरा भी नव दीक्षित मुनि को बन्दन करें । यद्यपि मुनि और अर्जिका ये सब पांच महावतधारी
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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