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________________ चतुर्थ अध्याय : ७५ राजा काकजंघ अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपने पुत्र की शिल्प शिक्षा का दायित्व उसे सौंप दिया था।' दीर्घनिकाय की टीकाओं में एक शिल्प विद्यालय का उल्लेख आता है जो कपिलवस्तु के आम्रोद्यान में स्थित था और जिसके विशाल भवन में विविध शिल्पों की शिक्षा प्रदान की जाती थी। शिल्प सीखने के लिये या तो गुरु को द्रव्य देना पड़ता था या शिक्षा काल तक गुरु के घर पर रहकर उसका कार्य करना पड़ता था।' जातककथा से ज्ञात होता है कि राजा ब्रह्मदत्त का पुत्र एक हजार मुद्रा लेकर गुरु के पास शिल्प सीखने गया था। वह रात को गुरु से शिक्षा लेता और दिन में उनके गृह-कार्य करता। अधिकतर शिल्प वंशपरम्परागत थे। शिल्पी को व्यावसायिक कौशल उत्तराधिकार में प्राप्त होता था। प्रायः पिता ही शिक्षक होता था और उसकी कर्मशाला ही शैक्षणिक प्रतिष्ठान होती थी। जब पिता को शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती तो वही व्यवसाय पुत्र संभाल लेता था । निशीथचूर्णि में उल्लेख है कि शिल्पी उन्हीं वस्तुओं के निर्माण की चेष्ट करते थे जिनके निर्माण से उन्हें पर्याप्त लाभ होता था।" प्रायः सभी प्रकार के शिल्पी अपने-अपने व्यवसाय के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति सचेष्ट थे। इसी कारण वे निगम, संघ, श्रेणी, पूग और निकाय जैसे संगठनों में संगठित थे।६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में शिल्पियों की १८ श्रेणियों का वर्णन है १. कुम्भार (कुभकार--मिट्टी के वर्तन बनाने वाले) २. पटइल्ला (तंतुवाय, पटेला-रेशम बनाने वाले) १. संघदासगणि-वसुदेवहिण्डी, भाग १, पृ० ६२ २. सत्यकेतु विद्यालंकार-भारत का प्राचीन इतिहास,पृष्ठ ३३३ ३. आदिग्गहणातो विज्जामंतजोगा सिक्खंतो सिक्खवेंतस्स केवगादि दव्वं देति, सो य जति तेण एवं उब्बद्धो जाव सिक्खा ताव तुम ममायत्तो-निशीथ. चूर्णि, भाग ३, गाथा ३७१४ ४. तिलभुवितजातक-आनन्द कौसल्यायन, जातककया, ३/८ ५. निशीथचूर्णि भाग ३ गाथा ४४१९ ६. ज्ञाताधर्मकथांग ८/११८; बृहत्कल्पभाष्य भाग २, गाथा १०९१; भाग ४,. गाथा ३९५९; आवश्यकचूर्णि भाग २, पृ० ८१ ७. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ३/१०
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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