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________________ ७२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन हआ था अपित नदियों, तालाबों ओर झीलों में अपने आप जो मछलियां पैदा होती थीं उन्हीं को पकड़ा जाता था।' विपाकसत्र से ज्ञात होता है कि मछुआरों को अपनो अलग बस्तियां होती थीं। शौर्यदत्त मछुआरे का मत्स्यपालन व्यवसाय इतने बृहद्स्तर पर था कि उसने बहुत से नौकर नियुक्त कर रखे थे । विपाकसूत्र में वर्णित मित्र राजा का श्रेयक नामक रसोइया अपने भृत्यों द्वारा "श्लक्षण' (छोटी मछलियां) और "पताकातिपताका" (विशेष मछलियां) नामकम छलियाँ पकड़वाकर राजा के लिये भोजन तैयार करवाता था। मछली पकड़ने की विविध विधियां प्रचलित थीं। प्रथमतः मछली पकड़ने के लिये मुख्यरूप से लोहे के कांटों और सूत-निर्मित जालों का प्रयोग किया जाता था। लोहे के गलकांटों पर आटे के पिंड या मांस के टुकड़े फंसाकर धागे की सहायता से उसे पानी में छोड़ा जाता था और प्रलुब्ध मछली जैसे ही उसको खाने को बढ़ती कांटा उसके गले में फंस जाता और इसप्रकार फंसो हुई मछली को मछुआरे बाहर खींच लेते ।' मछली पकड़ने के लिये कभी-कभी नदी, सरोवर और झील के जल को आलोडित-विलोडित किया जाता, कभी उस पर बांध निर्मित कर दिया जाता, तो कभी पानी को सुखाकर मछलियां पकड़ने का प्रयत्न किया जाता। ज्ञात होता है कि मछली पकड़ने वाली टोकरी जैसी एक विशेष प्रकार की नौका होती थी । शौर्यदत्त के भृत्यों द्वारा यमुना में इन छोटीछोटी नौकाओं से विभिन्न प्रकार की मछलियां पकड़ने का उल्लेख है।' तृतीयतः बड़े-बड़े चादरों जैसे वस्त्रों के दोनों छोरों को पकड़ कर जल के १. विपाकसूत्र, ६/१९ २. वही, ८/३ ३. “तते णं तस्स सोरियमच्छंधस्स वहवे पुरिसा दिन्नभत्ति भत्तवेयणा" वही, ८/१९ ४. वही, ८/११ ५. प्रश्नव्याकरण, १/२० ६. गलो दंडगस्स अंतो लोहकंटगो कज्जति तत्थ मंसपेसी कीरति सो दोहरज्जुणा बद्धो मच्छट्ठा जले खिप्पइ कूडमियादीणं अट्ठा णिक्खिप्पइ । निशीथचूर्णि भाग २, गाथा ८०५ ७. विपाकसूत्र ८/१९ ८. वही
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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