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________________ ५६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन उपजाऊ और मुलायम भूमि की आवश्यकता थी।' ईख के साथ कदू भी बोया जाता था। तिलहन तेल निकालने के लिये कई प्रकार के बीज बोये जाते थे। अलसी, कुसुम्भ, सरसों, तिल आदि का उल्लेख है । कपास वस्त्र बनाने के लिये कपास तथा सन का उत्पादन होता था । कपास को "तुलकड़" कहा जाता था। वस्त्र-उद्योग की उन्नति इस बात की पुष्टि करती है कि कपास की खेती पर्याप्त मात्रा में होती होगी। शाल्मलि वृक्ष से उत्तम रुई प्राप्त होती थी। सूत्रकृतांग में शाल्मलि वृक्ष का उल्लेख हुआ है ।" मसाले भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिये भाँति-भाँति के मसाले उपयोग में लाये जाते थे। पीपल, मिर्च, अदरक, हल्दी, जीरा, हींग, कपूर, लवंग, जायफल, प्याज, लहसुन, आदि के उल्लेख से प्रतीत होता है कि इनकी खेती भी अवश्य होती होगी। प्राकृतिक विपदायें प्राचीनकाल में कृषि प्रायः वर्षा पर निर्भर करती थी, इसलिये कई बार अनावृष्टि या अतिवृष्टि से फसलें नष्ट हो जाती थीं। कभी-कभी लोगों को लम्बे दुभिक्षों का सामना करना पड़ता था। महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष बाद मगध में १२ वर्ष का भयंकर अकाल पड़ने का उल्लेख है। इस समय कृषि का उत्पादन न होने से लोग भूखे मरने लगे। कीड़े १. बृहत्कल्पभाष्य भाग १, गाथा २६० २. "उत्थु रीवियं तुंबीओ"-उत्तराध्ययनचूर्णि, पृष्ठ १३३ ३. बृहत्कल्पभाष्य भाग १, गाथा ५२९ ४. आचारांग २/५/१/१४१ ५. सूत्रकृतांग १/६/३६९ ६. आचारांग २/१/८,४५; बृहत्कल्पभाष्य भाग २, गाथा १६११, १६१३; भगवतीसूत्र ७/३/५ ७. आवश्यकचूणि भाग २, पृ० १८७
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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