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________________ ४६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन हल, कलिक और बैलों को सहायता से खेत को बार-बार जोतकर तैयार किया जाता था।' चम्पा नगरी के खेतों की भूमि सैकड़ों हलों से जोती जाती थी। इसलिए उसकी मिट्टी भुरभुरी और कंकड़पत्थरों से रहित हो गई थी। साधारणतः एक खेत में एक समय पर एक ही फसल बोई जाती थी। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि वर्षा ऋतु के आगमन पर स्वामिनी रोहिणी के सेवकों ने जमीन को अच्छी तरह तैयार करके, बाड़ लगाकर शालि के बीज बोये थे।" सूत्रकृतांग में शालि, व्रीहि, कोद्रव, कंगु, राल आदि के खेतों का वर्णन है। किन्तु कहीं-कहीं एक खेत में एक साथ दो फसलें लगाने के भी उल्लेख मिलते हैं । उत्तराध्ययनचूर्णि से ज्ञात होता है कि किसी किसान ने ईख के साथ कद् भी बोया था। प्राचीनकाल में भारतीयों को अच्छे बीजों के महत्त्व का भी ज्ञान था। जैनसाहित्य में धान्य बीजों की अंकुरण क्षमता बनाये रखने के लिए कृषकों द्वारा की जाने वाली पर्याप्त व्यवस्था का उल्लेख है। किसान बुआई के लिए उत्तम बीज का प्रयोग करते थे। कौटिलीय अर्थशास्त्र में बीजों को संरक्षित करने का उल्लेख है। स्थानांग में धान्यों के बोने की चार विधियाँ निर्दिष्ट हैं १. बृहत्कल्पभाष्य भाग १ गाथा २६० २. "हलसयसहस्ससंकिट्ठ-विकिट्ठ-लट्ठ" औपपातिक सूत्र १/१ ३. खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेति सालिअक्खए ववीत, वाडिपरिक्खेवं करेति ज्ञाताधर्मकथांग ७/१२ ४. सूत्रकृतांग २/६९८ . ५. तगाये उच्छु रोवियं तुबीयो च- उत्तराध्ययनचूणि पृष्ठ १३३ कलाय-मसूर-तिल मुग्ग-मास-णिप्फाव-कुलत्थ -आलिसंदग सतीण पलिमंथग मादीणं । जहण्णणं अंतोमूहुत्त उक्कोसेणं पंच संवच्छराई । अयसि-कुसुभंगकोद्धव-कंगु-वरग-रालग-कोदूसग-सण सरिसव मूलगबीय मादोणंहं एएसि णं धन्नाणं कोट्ठाउताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणओ लत्ताणं पिहिताणं मुद्धियाणां लछियाणं । जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसंण सत्त संवच्छराई । १३१; भगवतीसूत्र ६/७।१,१,३ ७. बृहत्कल्पभाष्य भाग १ गाथा २२० .८. कौटिलीय अर्थशास्त्र २।२४।४१
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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