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________________ तृतीय अध्याय कृषि और पशुपालन उत्पादन का महत्त्व __सामान्यतः किसी वस्तु अथवा पदार्थ का निर्माण उत्पत्ति कहा जाता है परन्तु अर्थशास्त्रीय शब्दावली में उपयोगी आर्थिक वस्तुओं का उत्पादन हो उत्पत्ति है । आवश्यकताओं की पूर्ति तथा आर्थिक समृद्धि उत्पादन पर निर्भर करती है। जिस देश में उत्पादन बृहद्स्तर पर होता है वह देश आर्थिक दृष्टि से समृद्धिशाली हो जाता है। अधिक उत्पादन से देश के वाणिज्य और व्यापार में उन्नति होती है। जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि आगमिक काल में उत्पादन में वृद्धि करने वाले विविध व्यवसायों का विकास हो चुका था। उत्पादक व्यवसाय ___ जैन पौराणिक परम्परा के अनुसार ऋषभेदव का काल सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था का काल था। प्रारम्भिक युग में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं पर ही निर्भर था। लोग प्रकृति प्रदत्त कन्दमूल, फल-फूल तथा जंगलों में उत्पन्न धान्यों को ही खाया करते थे। लेकिन जब प्राकृतिक उत्पादन कम होने लगा और प्रजा में संघर्ष बढ़ने लगा तो आदि-तीर्थकर ऋषभदेव ने उत्पादन में वृद्धि हेतु अपनी प्रजा को १०० प्रकार के शिल्प सिखाये ।। प्रश्नव्याकरण से ज्ञात होता है कि असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और शिल्प आजीविका के साधन थे।३ दशवैकालिकचूणि में उल्लेख है कि चाणक्य ने अर्थोपार्जन के विविध साधन निर्दिष्ट किये थे।४ __ आदिपुराण के अनुसार ऋषभदेव ने प्रजा हेतु आजीविका के छः साधन बताये थे :-५ १. आवश्यक चूणि, भाग १ पृ० ५५. २. कल्पसूत्र १९६; आवश्यकचूर्णि, भाग १ पृ० १५६. ३ सिप्पसेवं, असि-मसि किसि-वाणिज्ज, ववहारं, अत्यसत्थईसत्थच्छरुप्पगयं । -प्रश्नव्याकरण ५/५ ४. दशवकालिकचूणि, पृ० १०२ ५. असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा स्यु : प्रजाजीवनहेतवः ।। आदिपुराण १६/१७९
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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