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________________ -२८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन सारा धन नष्ट कर देता था वह अधम माना जाता था। कौटिल्य ने भी मूलपूजी व्यय करने वाले को 'मूलहर' नाम दिया है तथा ऐसे व्यक्ति को जो जितना अजित करे उतना ही व्यय करे 'तादत्कि' कहा है और जो भृत्य आदि को पीड़ा देखकर धन इकट्ठा करे उसे 'कदर्प' कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि मौर्यकाल और गुप्तकाल दोनों में ही न्याय से पंजी अजित करने पर बल दिया गया था। प्रायः यह धारणा है कि धार्मिक विचारों के कारण जैनधर्म में संग्रहप्रवृत्ति पर अंकुश था । आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करना अच्छा नहीं माना जाता था। लोग धन को उत्पादन में लगाने की अपेक्षा परोपकार और धार्मिक कृत्यों में लगाना अच्छा मानते थे, इसलिए उद्योगों के लिए पूंजी का अभाव था, परन्तु यह धारणा सत्य नहीं है । उपासकदशांग में महावीर के पास आनन्द, महाशतक, चूलनीपिता, सकडालपुत्र और कामदेव जैसे करोड़पति गाथापतियों के आने का उल्लेख है, जिससे स्पष्ट होता है कि उस समय भी धन-संग्रह की प्रवृत्ति विद्यमान थी। उन्होंने श्रावकधर्म ग्रहण करते समय भी सम्पूर्ण सम्पत्ति का त्याग नहीं किया था, परन्तु उसको मर्यादा निश्चित को थो और उत्पादन हेतु पर्याप्त धन पर अपना स्वामित्व बनाये रखा था । यद्यपि साधु जीवन के लिए पूर्ण धन का त्याग आवश्यक था परन्तु गृहस्थ जीवन में न्याय-नोति से अर्जन किया हुआ धन बुरा नहीं माना जाता था। आचारांग से ज्ञात होता है कि मनुष्य अपने भविष्य की सुरक्षा, सन्तान के पालन-पोषण और अपने सामाजिक दायित्व निभाने के लिए धन संचय करता था। परन्तु उसे उत्पादन में नियोजित करने की अपेक्षा उसे सुरक्षित रखने हेतु भूमि के नीचे छिपा देते थे। स्थूलभद्र आचार्य के पूर्वजन्म के मित्र के घर उसके पूर्वजों के द्वारा एक स्तम्भ के नीचे गड़ा १. तत्थ अत्ये उतमो जा पिउ-पियामहज्जियं अत्यंपरिभुजंतो वड्ढावेइ, जो ण परिहावेइ सो मज्झिमो, जो खावेइ सो अधमो-संघदासगणि, वसुदेव हिण्डो, भाग १ पृ० १०१ । २. कौटिलीय अर्थशास्त्र, १/९/२७ । ३. उपासकदशांग, १/२-१० । ४. आचारांग १/२/४/८४ ।
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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