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________________ द्वितीय अध्याय : १९ पशु स्वच्छन्द चरते थे और उनके लिये चारे की उपलब्धि के अनुसार नई-नई जगह गोष्ठ बना लेते थे।' इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमि पर राज्य का, व्यक्तिगत और साम्हिक तीनों ही तरह का स्वामित्व प्रचलित था। वैधानिक रूप से भमि का स्वामी कोई भी रहा हो कृषक अपने परिश्रम से धान्य-फल उत्पन्न करते थे और उसका उपभोग करते थे। भूमि राज्य से प्राप्त की गई हो अथवा क्रय की गई हो उसके स्वामी को राजस्व देना पड़ता था पर 'धर्मार्थ संघों को दान दी हुई भूमि राजस्व से मुक्त होती थी। उत्पादन में श्रम का महत्त्व श्रम उत्पादन का मूलभूत साधन है। श्रम से ही देश में उपलब्ध प्राकृतिक साधनों का पर्याप्त विदोहन सम्भव है। आधुनिक अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से श्रम के अन्तर्गत शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के श्रम समाहित हैं। इस प्रकार श्रम करने वालों में कृषि और उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों और शिल्पियों के अतिरिक्त अधिकारी, वैद्य, व्यापारी आदि भी आ जाते हैं । अर्थशास्त्र में व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया श्रम नहीं मानी जाती । वही क्रिया श्रम मानी जा सकती है जिससे सेवा या किसी प्रकार की सामग्री का निर्माण हो और जो आर्थिक उद्देश्य से की गई हो। सूत्रकृतांग की रचना के काल में श्रम पर्याप्त था, गृहपतियों के पास काम करने वालों में भागीदार, कर्मकर, भृतक, कुटुम्बी, सेवक, संदेशवाहक और दास-दासियों का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में श्रम १. पाणिनि अष्टाध्यायी, ३/३/११९, ५/२/१८. २. महाराज हस्तिन का खोह ताम्रपत्र अभिलेख और महाराज धरसेन द्वितीय का ताम्रपत्र अभिलेख : फ्लीट, जांनफेयफुल : प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह, पृ० १२४ और २०१. ३. एलपर्ड मार्शल : प्रिसिपल आफ इकोनोमिक्स, उल्लिखित, वीरेन्द्र टण्डन अर्थशास्त्र के सिद्धान्त, पृ० १६८. ४. बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहा-दासे ति वा पेसे ति वा भयए ति भाइल्लेवा कम्मकरइ ति वा भोगपुरिसेइ-सूत्रकृतांग २/७१३ : प्रश्नव्याकरण १०/३, बृहत्कल्पभाष्य, ३/२६३४.
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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