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________________ ___ उपसंहार : २०३ सुविधापूर्ण आवासगृहों में निवास करते थे और विपन्न साधारण गृहों में। जैन ग्रंथों से ज्ञात होता है कि प्रजा के मनोरंजन के लिये राज्य पर्याप्त धन व्यय करता था। प्रजा भी वनविहार, उद्यानविहार, जलविहार, विविध महोत्सव, संगीत, नृत्य, नाटक, आखेट, छूत आदि पर धन व्यय करके आनन्द-आमोद के द्वारा अपने को स्वस्थ रखती थी। मनुष्य के सर्वाङ्गीण विकास को ध्यान में रखकर पुरुषों को ७२ और स्त्रियों को ६४ जीवनोपयोगी कलाओं की शिक्षा दी जाती थी । भूमिविज्ञान, धातुविज्ञान, पशुविज्ञान, वस्त्र-विज्ञान, वास्तु-विज्ञान जैसे विज्ञानों और विद्याओं की शिक्षा से अर्थ के महत्त्व और उसकी उपयोगिता के प्रति अवश्य जागरूकता बढ़ी होगी। आर्थिक समृद्धि में स्वस्थ शरीर के महत्त्व को समझते हुये स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया जाता था। कुशल वैद्य रोगों का उपचार करके उनका निदान करते थे। उपासकदशांग में वर्णित आनन्द आदि दस गाथापतियों के वैभव का वर्णन किसी सीमा तक अतिशयोक्तिपूर्ण होते हये भी तत्कालीन समाज की विपुल समृद्धि की सूचना देता है। प्राचीन जैन ग्रंथों के विस्तृत अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उनके रचनाकाल में भारत की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी।
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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