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________________ १७० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन जिसे राजा द्वारा अधिग्रहीत करने का उल्लेख है।' कौटिल्य का कहना है कि यदि किसी व्यक्ति को भूमिस्थ निधि प्राप्त हो और राजा को इसकी सूचना दे दे तो राजा का यह कर्तव्य है कि उसे प्राप्त निधि का १/६ पुरस्कार के रूप में प्रदान करे और शेष राज्य-सम्पत्ति के रूप में रखले । मनुस्मृति के अनुसार भूमि से प्राप्त आधी निधि राजा को स्वयं रख लेनी चाहिये और आधी ब्राह्मणों को दान कर देनी चाहिये । गौतम धर्मसूत्र के अनुसार भी भमि में भूमिस्थनिधि पर राज्य का अधिकार होता है किन्तु यदि वह ब्राह्मण को प्राप्त हो तो उस पर उसका अधिकार होता है और यदि अब्राह्मण को प्राप्त हो तो वह राजा को सूचित करके १/६ धनांश पुरस्कार स्वरूप ग्रहण कर सकता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में खनिज पदार्थों पर भी राज्य का अधिकार बताया गया है । वाणिज्य-कर-व्यापारियों द्वारा राज्य को प्रदान किये जाने वाले कर को शुल्क कहा जाता था। निशीथचूर्णि से ज्ञात होता है कि शुल्क ग्रहण करने वाले अधिकारी को 'सुकिया' और शुल्क ग्रहण किये जाने वाले स्थान को 'सुवंवद्धणे' कहा जाता था। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी शुल्क ग्रहण करने वाले अधिकारी को 'शुल्काध्यक्ष' और शुल्क ग्रहण करने वाले स्थान को 'शुल्कशाला' कहा गया है। मौर्यकाल से ही व्यापारिक पथों पर शुल्कशालायें बना कर शुल्क ग्रहण करने की समुचित व्यवस्था थी। कर ग्रहण करते समय राज्य और व्यापारी दोनों की सुविधाओं का ध्यान रखा जाता था। बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख है कि वाणिज्य कर, 1 १. निशीथचूणि भाग ३, गाथा ४३१६ २. कौटिलीय अर्थशास्त्र, ४/१/७६ ३. मनुस्मृति, ४/३९ ४. गौतमधर्मसूत्र, २/१/४३ ५. कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/६/२४ ६. 'तस्स य गच्छतो सुंकठाणे सुंकिओ उवट्टितो-'सुंकं देहि', निशीथचूर्णि __ भाग ४, गाथा ६५१९ ७. 'शुल्काध्यक्षः शुल्कशालाध्वजं च प्राङ्मुखमुदङमुखं वा महाद्वाराभ्याशे निवेशयेत्', कौटिलीय अर्थशास्त्र २/२१/३९ ८. वही.
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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