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________________ अध्याय ६ वितरण प्राचीन जैन साहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में देश धनधान्य से परिपूर्ण था। व्यापार और उद्योगों से देश की आर्थिक समृद्धि में वृद्धि हुई थी। किन्तु यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि सम्पूर्ण राष्ट्र ही ऐश्वर्ययुक्त सुख-सुविधाओं का भोग कर रहा था या केवल विशेष वर्ग। राष्ट्र में उत्पादन के साधन-भूमि, श्रम, पूंजी, प्रबन्ध और व्यवस्थाप्राकृतिक साधनों की सहायता से नियत अवधि में विभिन्न सामग्रियों की निर्धारित मात्रा उत्पन्न करते हैं। उत्पत्ति की यही निश्चित मात्रा कालविशेष की राष्ट्रीय आय मानी जाती है। उत्पादन के साधनों में राष्ट्रीय आय के विभाग को वितरण कहा जाता है । वितरण में भूस्वामी को भूमि का लगान श्रमिकों को पारिश्रमिक, पूंजीपति को ब्याज, प्रबन्धक को लाभ अथवा हानि मिलते हैं। आर्थिक शक्ति का प्रसार, उसकी सीमा एवं जन-सामान्य की सम्पन्नता तथा विपन्नता एवं इसका राष्ट्र की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव इन सबका विवेचन प्रस्तुत अध्याय में किया गया है। १-लगान __ भूमि की मौलिक और उर्वरक शक्तियों के उपयोग के बदले दिये जाने वाले अंश को भाग या लगान कहा जाता था । आवश्यकचूणि में उल्लिखित है कि खेतों में उत्पन्न कुल उपज का १/४ या १/८ भाग जो राजा को प्रदान किया जाता था वह खेतकर या सीता कहा जाता था।' प्राचीनकाल में राजा ही भूपति माना जाता था, इसलिये भूमि के उपयोग के बदले दिये जाने वाले 'अंश, 'भाग' या 'लगान' का वही अधिकारी होता था। भूमि के अंश की दर भूमि की उर्वरता पर निर्भर करती थी। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार राज्य भूमि की उपज का १/६ से १/१० अंश 'भाग' के रूप में ग्रहण करता था। मनुस्मृति में राजदेय अंश १. आवश्यकचूणि भाग २, पृ० ८ २. बृहत्कल्पभाष्य भाग ५, गाथा ५२५९, २/१०९२
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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