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________________ व्यापारी जैन ग्रन्थों में दो प्रकार के व्यापारियों का उल्लेख प्राप्त हुआ है— (१) स्थानीय व्यापारी, (२) सार्थवाह ।' स्थानीय व्यापारियों की तीन कोटियाँ थीं - ' वणिक्', गाथापति और 'श्रेष्ठि' । ये नगरों तथा गांवों में व्यापार करते थे । निशोथचूर्णि के अनुसार वणिक् बहुत चतुर होते हैं वे अल्प धन लगाकर प्रभूत लाभ प्राप्त करते हैं । जो स्थानीय व्यापारी एक ही स्थान पर या दुकान पर बैठकर व्यापार करते थे उन्हें 'वणि' कहा जाता था । जो बिना किसी निश्चित दुकान के एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते हुये व्यापार करते थे, उन्हें 'विवणि' कहा जाता था । जो गट्ठर में व्यापार की विभिन्न वस्तुएं रख कर व्यापार करते थे, उन्हें "कक्खपुडिय" कहा जाता था ।" ये पूरे वर्ष ग्रामों और नगरों में घूम-घूम कर अपनी सामग्री बेचकर व्यापार करते थे, लेकिन वर्षा ऋतु में अपना व्यापार बन्द रखते थे । कुछ सम्पन्न व्यापारी गाड़ियों में माल भर कर व्यापार हेतु निकलते थे किन्तु वर्षा ऋतु में वे भी व्यापार नहीं करते थे । निशीथचूर्णि से ज्ञात होता है कि व्यापारी गाड़ियों में गेहूँ भर, दूसरे नगरों में व्यापार के लिये जाते थे। इसी प्रकार बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार आभीर घी बेचने के लिये नगर में जाते थे । ' १. ज्ञाताधर्मकथांग १५ / ६ वसुदेवहिण्डो १/१४५; उपासकदशांग १ / १२; निशीथचूर्णि भाग २, गाथा ७३५, भाग २, गाथा ५२२ २. जहा वणिअ अप्प दविणं चइउं बहुत्तरं लाभं गेहति -- निशीथ चूर्णि भाग १, गाथा ४५ ३. वणित्ति जे णिच्चट्ठिता ववहरति पंचम अध्याय : १०१ ४. " जे विणा आवणेण उभट्ठिता वाणिज्जं करेंति" " कक्खपदेसे पुडा जस्स स कच्छपुडओ " ६. कक्खपुडियवणिया गामेसु न संचरंति । वही भाग ४, गाथा ५७५० वही, भाग ४, गाथा ५७५० वही, भाग २, गाथा ११९१ ७. वही भाग ४, गाथा ५६६४ " ८. बृहत्कल्पभाष्य, भाग १, गाथा ३६१ वही, भाग ३, गाथा ३२२६
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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